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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३१२] [ मोक्षमार्गप्रकाशक अन्य कार्यों में ही प्रवर्ते, परन्तु मन्द रागादिसहित प्रवर्ते। - ऐसे अवसरमें उपदेश कार्यकारी विचारशक्तिरहित जो एकेन्द्रियादिक हैं, उनके तो उपदेश समझनेका ज्ञान ही नहीं है; और तीव्र रागादिसहित जीवोंका उपयोग उपदेशमें लगता नहीं है। इसलिये जो जीव विचारशक्तिसहित हों, तथा जिनके रागादि मन्द हों; उन्हें उपदेश के निमित्तसे धर्म की प्राप्ति हो जाये तो उनका भला हो; तथा इसी अवसरमें पुरुषार्थ कार्यकारी है। एकेन्द्रियादिक तो धर्मकार्य करनेमें समर्थ ही नहीं हैं, कैसे पुरुषार्थ करें ? और तीव्रकषायी पुरुषार्थ करे तो वह पाप ही का करे, धर्मकार्य का पुरुषार्थ हो नहीं सकता। इसलिये जो विचारशक्तिसहित हो और जिसके रागादिक मन्द हों - वह जीव पुरुषार्थसे उपदेशादिकके निमित्तसे तत्त्वनिर्णयादिमें उपयोग लगाये तो उसका उपयोग वहाँ लगे और तब उसका भला हो। यदि इस अवसर में भी तत्त्वनिर्णय करनेका पुरुषार्थ न करे, प्रमादसे काल गँवाये - या तो मन्दरागादि सहित विषयकषायोंके कार्यों में ही प्रवर्ते, या व्यवहारधर्मकार्यों में प्रवर्ते; तब अवसर तो चला जायेगा और संसार में ही भ्रमण होगा। तथा इस अवसरमें जो जीव पुरुषार्थसे तत्त्वनिर्णय करनेमें उपयोग लगानेका अभ्यास रखें, उनके विशुद्धता बढ़ेगी; उससे कर्मों की शक्ति हीन होगी, कुछ काल में अपने आप दर्शनमोहका उपशम होगा; तब तत्त्वोंकी यथावत् प्रतीति आयेगी सो इसका तो कर्त्तव्य तत्त्वनिर्णयका अभ्यास ही है, इसीसे दर्शनमोहका उपशमतो स्वयमेव होता है; उसमें जीव का कर्त्तव्य कुछ नहीं है। तथा उसके होने पर जीवके स्वयमेव सम्यग्दर्शन होता है। और सम्यग्दर्शन होने पर श्रद्धान तो यह हुआ कि 'मैं आत्मा हूँ, मुझे रागादिक नहीं करना' ; परन्तु चारित्रमोहके उदय से रागादिक होते हैं। वहाँ तीव्र उदय हो तबतो विषयादिमें प्रवर्तता है। और मन्द उदय हो तब अपने पुरुषार्थसे धर्मकार्यों में व वैराग्यादि भावनामें उपयोगको लगाता है; उसके निमित्तसे चारित्रमोह मन्द हो जाता है; - ऐसा होनेपर देशचारित्र व सकलचारित्र अंगीकार करनेका पुरुषार्थ प्रगट होता है तथा चारित्र को धारण करके अपने पुरुषार्थसे धर्ममें परिणतिको बढ़ाये वहाँ विशुद्धता से कर्म की शक्ति हीन होती है, उससे विशुद्धता बढ़ती है, और उससे कर्मकी शक्ति अधिक हीन होती है। इसप्रकार क्रमसे मोहका नाश करे तब सर्वथा परिणाम विशुद्ध होते हैं, उनके द्वारा ज्ञानावरणादिका नाश हो तब केवलज्ञान प्रगट होता है। पश्चात् वहाँ बिना उपाय अघाति कर्मका नाश करके शुद्ध सिद्धपदको प्राप्त करता Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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