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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आठवाँ अधिकार] [३०१ सर्व जिनमतका चिह्न स्याद्वाद है और ‘स्यात्' पदका अर्थ 'कथंचित् ' है; इसलिये जो उपदेश हो उसे सर्वथा नहीं जान लेना। उपदेश के अर्थको जान कर वहाँ इतना विचार करना कि यह उपदेश किस प्रकार है, किस प्रयोजन सहित है, किस जीव को कार्यकारी है ? इत्यादि विचार करके उसका यथार्थ अर्थ ग्रहण करे। पश्चात् अपनी दशा देखे। जो उपदेश जिस प्रकार अपनेको कार्यकारी हो उसे उसी प्रकार आप अंगीकार करे; और जो उपदेश जानने योग्य ही हो तो उसे यथार्थ जान ले। इसप्रकार उपदेशके फलको प्राप्त करे। यहाँ कोई कहे - जो तुच्छ बुद्धि इतना विचार न कर सके वह क्या करे ? उत्तर :- जैसे व्यापारी अपनी बुद्धिके अनुसार जिसमें समझे सो थोड़ा या बहुत व्यापार करे, परन्तु नफा-नुकसान का ज्ञान तो अवश्य होना चाहिये। उसी प्रकार विवेकी अपनी बुद्धिके अनुसार जिसमें समझे सो थोड़े या बहुत उपदेश को ग्रहण करे, परन्तु मुझे यह कार्यकारी है, यह कार्यकारी नहीं है - इतना तो ज्ञान अवश्य होना चाहिये। सो कार्य तो इतना है कि यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान करके रागादि घटाना। सो यह कार्य अपना सिद्ध हो उसी उपदेश का प्रयोजन ग्रहण करे; विशेष ज्ञान न हो तो प्रयोजन को तो नहीं भूले; इतनी तो सावधानी अवश्य होना चाहिये। जिसमें अपने हितकी हानि हो, उसप्रकार उपदेश का अर्थ समझना योग्य नहीं है। इसप्रकार स्याद्वाददृष्टि सहित जैन शास्त्रोंका अभ्यास करने से अपना कल्याण होता है। यहाँ कोई प्रश्न करे - जहाँ अन्य-अन्य प्रकार सम्भवित हों वहाँ तो स्याद्वाद सम्भव है; परन्तु एक ही प्रकार से शास्त्रमें परस्पर विरोध भासित हो वहाँ क्या करे ? जैसे - प्रथमानुयोगमें एक तीर्थंकरके साथ हजारों मोक्ष गये बतलाये हैं; करणानुयोगमें छह महीना आठ समयमें छहसो आठ जीव मोक्ष जाते हैं - ऐसा नियम कहा है। प्रथमानुयोगमें ऐसा कथन किया है कि देव-देवांगना उत्पन्न होकर फिर मरकर साथ ही मनुष्यादि पर्याय में उत्पन्न होते हैं। करणानुयोगमें देवकी आयु सागरोंप्रमाण और देवांगनाकी आयु पल्योंप्रमाण कही है। - इत्यादि विधि कैसे मिलती है ? उत्तर :- करणानुयोगमें जो कथन है वह तो तारतम्य सहित है, और अन्य अनुयोग में कथन प्रयोजनानुसार है; इसलिये करणानुयोगका कथन तो जिस प्रकार किया है उसी प्रकार है; औरोंके कथनकी जैसे विधि मिले वैसा मिला लेना। हजारों मुनि तीर्थंकरके साथ मोक्ष गये बतलाये, वहाँ यह जानना कि एक ही कालमें इतने मोक्ष नहीं गये हैं, परन्तु जहाँ तीर्थंकर गमनादि क्रिया मिटाकर स्थिर हुए, वहाँ उनके साथ इतने मुनि तिष्ठे, फिर आगे Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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