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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २८८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक तथा वैद्यकादि चमत्कारसे जिनमतकी प्रभावना हो व औषधादिकसे उपकार भी बने; अथवा जो जीव लौकिक कार्योंमें अनुरक्त है वे वैद्यकादि चमत्कारसे जैनी होकर पश्चात् सच्चा धर्म प्राप्त करके अपना कल्याण करें इत्यादि प्रयोजन सहित वैद्यकादि शास्त्र कहे यहाँ इतना है कि यह भी जैन शास्त्र हैं ऐसा जानकर इनके अभ्यासमें बहुत नहीं लगना । यदि बहुत बुद्धिसे इनका सहज जानना हो और इनको जानने से अपने रागादिक विकार बढ़ते न जाने, तो इनका भी जानना होओ। अनुयोगशास्त्रवत् ये शास्त्र बहुत कार्यकारी नहीं हैं, इसलिये इनके अभ्यासका विशेष उद्यम करना योग्य नहीं है। - प्रश्न :- यदि ऐसा है तो गणधरादिकने इनकी रचना किसलिये की ? उत्तर :- पूर्वोक्त किंचित् प्रयोजन जानकर इनकी रचना की है। जैसे बहुत धनवान कदाचित् अल्पकार्यकारी वस्तु का भी संचय करता है, परन्तु थोड़े धनवाला उन वस्तुओंका संचय करे तो धन तो वहाँ लग जाये, फिर बहुत कार्यकारी वस्तु का संग्रह काहेसे करे ? उसी प्रकार बहुत बुद्धिमान गणधरादिक कथंचित् अल्पकार्यकारी वैद्यकादि शास्त्रोंका भी संचय करते हैं, परन्तु थोड़ा बुद्धिमान उनके अभ्यासमें लगे तो बुद्धि तो वहाँ लग जाये, फिर उत्कृष्ट कार्यकारी शास्त्रोंका अभ्यास कैसे करे ? तथा जैसे मन्दरागी तो पुराणादिमें श्रृंगारादिका निरूपण करे तथापि विकारी नहीं होता; परन्तु तीव्ररागी वैसे श्रृंगारादिका निरूपण करे तो पाप ही बान्धेगा । उसी प्रकार मन्दरागी गणधरादिक हैं वे वैद्यकादि शास्त्रोंका निरूपण करें तथापि विकारी नहीं होते; परन्तु तीव्ररागी उनके अभ्यासमें लग जाये तो रागादिक बढ़ाकर पापकर्मको बाँधेंगे ऐसा जानना । - इसप्रकार जैनमत के उपदेश का स्वरूप जानना। अनुयोगोंमें दोष- कल्पनाओंका निराकरण अब, इनमें कोई दोष - कल्पना करता है, उसका निराकरण करते हैं : प्रथमानुयोगमें दोष कल्पनाका निराकरण कितने ही जीव कहते हैं प्रथमानुयोगमें श्रृंगारादिक व संग्रामादिकका बहुत कथन करते हैं, उनके निमित्त से रागादिक बढ़ जाते हैं, इसलिये ऐसा कथन नहीं करना था, व ऐसा कथन सुनना नहीं । — - उनसे कहते हैं कथा कहना हो तब तो सभी अवस्थाओंका कथन करना चाहिये; तथा यदि अलंकारादि द्वारा बढ़ाकर कथन करते हैं, सो पण्डितोंके वचन तो युक्ति सहित ही निकलते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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