SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आठवाँ अधिकार] [२८५ उत्तर :- जैसे शुद्ध जाति की अपेक्षा जाट, चांडाल समान कहें हैं; परन्तु चांडालसे जाट कुछ उत्तम है; वह अस्पृश्य है, यह अपृश्य है; उसी प्रकार बन्ध कारण की अपेक्षा पुण्य-पाप समान हैं; परन्तु पापसे पुण्य कुछ भला है; वह तीव्रकषायरूप है, यह मन्दकषायरूप है; इसलिये पुण्य छोड़कर पापमें लगना युक्त नहीं है - ऐसा जानना। तथा जो जीव जिनबिम्ब भक्ति आदि कार्यों में ही मग्न हैं उनको आत्मश्रद्धानादि करानेको 'देहमें देव है, मन्दिरोंमें नहीं' - इत्यादि उपदेश देते हैं। वहाँ ऐसा नहीं जान लेना कि भक्ति छोड़कर भोजनादिसे अपनेको सुखी करना; क्योंकि उस उपदेशका प्रयोजन ऐसा नहीं है। इसीप्रकार अन्य व्यवहारका निषेध वहाँ किया हो उसे जान कर प्रमादी नहीं होना। ऐसा जानना कि जो केवल व्यवहारसाधनमें ही मग्न हैं उनको निश्चयरूचि कराने के अर्थ व्यवहार को हीन बतालाया है। तथा उन्हीं शास्त्रोंमें सम्यग्दृष्टिके विषय-भोगादिकको बन्धका कारण नहीं कहा, निर्जराका कारण कहा; परन्तु यहाँ भोगोंका उपादेयपना नहीं जान लेना। वहाँ सम्यग्दृष्टि की महिमा बतलानेको जो तीव्रबन्धके कारण भोगादिक प्रसिद्ध थे. उन भोगादिकके होने पर भी श्रद्धानशक्तिके बलसे मन्द बन्ध होने लगा उसे गिना नहीं और उसी बल से निर्जरा विशेष होने लगी, इसलिये उपचारसे भोगोंको भी बन्धका कारण नहीं कहा, निर्जराका कारण कहा। विचार करने पर भोग निर्जराके कारण हों तो उन्हें छोड़कर सम्यग्दृष्टि मुनिपद का ग्रहण किसलिये करे? यहाँ इस कथनका इतना ही प्रयोजन है कि देखो, सम्यक्त्व की महिमा! जिसके बलसे भोग भी अपने गुणको नहीं कर सकते। इसीप्रकार अन्य भी कथन हों तो उनका यथार्थपना जान लेना। तथा द्रव्यानुयोगमें भी चरणानुयोगवत् ग्रहण-त्याग कराने का प्रयोजन है; इसलिये छद्मस्थ के बुद्धिगोचर परिणामों की अपेक्षा ही वहाँ कथन करते हैं। इतना विशेष है कि चरणानुयोमें तो बाह्यक्रियाकी मुख्यतासे वर्णन करते हैं, द्रव्यानुयोगमें आत्मपरिणामोंकी मुख्यतासे निरूपण करते हैं; परन्तु करणानुयोगवत् सूक्ष्म वर्णन नहीं करते। उसके उदाहरण देते हैं : उपयोगके शुभ , अशुभ, शुद्ध – ऐसे तीन भेद कहे हैं; वहाँ धर्मानुरागरूप परिणाम वह शुभोपयोग, पापानुरागरूप व द्वेषरूप परिणाम वह अशुभोपयोग, और राग-द्वेषरहित परिणाम वह शुद्धोपयोग - ऐसा कहा है सो इस छद्मस्थ के बुद्धिगोचर परिणामोंकी अपेक्षा वह कथन है; करणानुयोगमें कषायशक्तिकी अपेक्षा गणस्थानादिमें संक्लेशविशद्ध परिणामोंकी अपेक्षा निरूपण किया है वह विवक्षा यहाँ नहीं है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy