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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आठवाँ अधिकार] [२७७ है। यहाँ कोई करणानुयोगके अनुसार आप उद्यम करे तो हो नहीं सकता; करणानुयोगमें तो यथार्थ पदार्थ बतलानेका मुख्य प्रयोजन है, आचरण कराने की मुख्यता नहीं है। इसलिये यह तो चराणानुयोगादिकके अनुसार प्रर्वतन करे, उससे जो कार्य होना है वह स्वयमेव ही होता है। जैसे - आप कर्मोंके उपशमादि करना चाहे तो कैसे होंगे ? आप तो तत्त्वादिकका निश्चय करने का उद्यम करे, उससे स्वयमेव ही उपशमादि सम्यक्त्व होते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र जानना। एक अन्तर्मुहूर्तमें ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरकर क्रमशः मिथ्यादृष्टि होता है और चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न करता है। सो ऐसे सम्यक्त्वादिके सूक्ष्मभाव बुद्धिगोचर नहीं होते। इसलिये करणानुयोगके अनुसार जैसेका तैसा जान तो ले , परन्तु प्रवृत्ति बुद्धिगोचर जैसे भला हो वैसी करे। तथा करणानुयोगमें भी कहीं उपदेशकी मुख्यता सहित व्याख्यान होता है, उसे सर्वथा उसी प्रकार नहीं मानना। जैसे – हिंसादिकके उपायको कुमतिज्ञान कहा है; अन्य मतादिकके शास्त्राभ्यासको कुश्रुतज्ञान कहा है; बुरा दिखे, भला न दिखे, उसे विभंगज्ञान कहा है; सो इनको छोड़नेके अर्थ उपदेश द्वारा ऐसा कहा है। तारतम्यसे मिथ्यादृष्टिके सभी ज्ञान कुज्ञान है, सम्यग्दृष्टिके सभी ज्ञान सुज्ञान हैं। इसी प्रकार अन्यत्र जानना। तथा कहीं स्थूल कथन किया हो उसे तारतम्यरूप नहीं जानना। जिस प्रकार व्याससे तीन गुनी परिधि कही जाती है, परन्तु सूक्ष्मता से कुछ अधिक तीन गुनी होती है। इसी प्रकार अन्यत्र जानना। तथा कहीं मुख्यताकी अपेक्षा व्याख्यान हो उसे सर्वप्रकार नहीं जानना। जैसे - मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थान वालोंको पापजीव कहा है, असंयतादि गुणस्थानवालोंको पुण्यजीव कहा है, सो मुख्यपनेसे ऐसा कहा है; तारतम्यसे दोनोंके पाप-पुण्य यथासम्भव पाये जाते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र जानना। ऐसे ही और भी नानाप्रकार पाये जाते हैं, उन्हें यथासम्भव जानना। इस प्रकार करणानुयोगमें व्याखानका विधान बतलाया। चरणानुयोगके व्याख्यानका विधान अब, चरणानुयोगमें व्याख्यानका विधान बतलाते हैं। चरणानुयोगमें जिसप्रकार जीवोंके अपनी बुद्धिगोचर धर्मका आचरण हो वैसा उपदेश दिया है। वहाँ धर्मतो निश्चयरूप मोक्षमार्ग है वही है, उसके साधनादिक उपचारसे धर्म हैं। इसलिये व्यवहारनयकी प्रधानतासे नानाप्रकार उपचार धर्मके भेदादिकोंका इस में निरूपण किया जाता है; क्योंकि निश्चयधर्म में तो कुछ ग्रहण-त्यागका विकल्प नहीं है, और इसके निचली Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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