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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २६० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक हेतु - युक्ति द्वारा इनको जानना, व प्रमाण - नय द्वारा जानना, व निर्देष - स्वामित्वादिसे और सत्-संख्यादिसे इनके विशेष जानना । जैसी बुद्धि हो जैसा निमित्त बने, उसी प्रकार इनको सामान्य–विशेषरूपसे पहिचानना । तथा इस जानने उपकारी गुणस्थान-मार्गणादिक व पुराणादिक व व्रतादिक - क्रियादिकका भी जानना योग्य है। यहाँ जिनकी परीक्षा हो सके उनकी परीक्षा करना, न हो सके उनकी आज्ञानुसार जानकारी करना । इसप्रकार इस जाननेके अर्थ कभी स्वयं ही विचार करता है, कभी शास्त्र पढ़ता है, कभी सुनता है, कभी अभ्यास करता है, कभी प्रश्नोत्तर करता है, इत्यादिरूप प्रवर्तता है। अपना कार्य करनेका इसको हर्ष बहुत है, इसलिये अन्तरंग प्रीतिसे उसका साधन करता है। इसप्रकार साधन करते हुए जब तक (१) सच्चा तत्त्वश्रद्धान न हो, (२) — यह इसीप्रकार है' - ऐसी प्रतीति सहित जीवादितत्त्वोंका स्वरूप आपको भासित न हो, (३) जैसे पर्यायमें अहंबुद्धि है वैसे केवल आत्मामें अहंबुद्धि न आये, (४) हित-अहितरूप अपने भावोंको न पहिचाने - तबतक सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टि है । यह जीव थोड़े ही कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त होगा; इसी भवमें या अन्य पर्यायमें सम्यक्त्वको प्राप्त करेगा। इस भवमें अभ्यास करके परलोकमें तिर्यंचादि गतिमें भी जाये तो वहाँ संस्कारके बलसे देव-गुरु-शास्त्रके निमित्त बिना भी सम्यक्त्व हो जाये, क्योंकि ऐसे अभ्यासके बलसे मिथ्यात्वकर्मका अनुभाग हीन होता है। जहाँ उसका उदय न हो वहीं सम्यक्त्व हो जाता है। " मूलकारण यही है । देवादिकका तो बाह्य निमित्त है; सो मुख्यतासे तो इनके निमित्तसे ही सम्यक्त्व होता है; तारतम्यसे पूर्व अभ्यास - संस्कारसे वर्त्तमानमें इनका निमित्त न हो तो भी सम्यक्त्व हो सकता है । सिद्धान्तमें “ तन्निसर्गादधिगमाद्वा ” ( तत्त्वार्थसूत्र १ - ३ ) ऐसा सूत्र है। इसका अर्थ यह है कि वह सम्यग्दर्शन निसर्ग अथवा अधिगमसे होता है। वहाँ देवादिक बाह्यनिमित्तके बिना हो उसे निसर्गसे हुआ कहते हैं; देवादिकके निमित्तसे हो, उसे अधिगमसे हुआ कहते हैं। देखो तत्त्वविचारकी महिमा ! तत्त्वविचाररहित देवादिककी प्रतीति करे, बहुत शास्त्रोंका अभ्यास करे, व्रतादिक पाले, तपश्चरणादि करे, उसको तो सम्यक्त्व होनेका अधिकार नहीं ; और तत्त्वविचारवाला इनके बिना भी सम्यक्त्वका अधिकारी होता है। तथा किसी जीवको तत्त्वविचार होनेके पहिले कोई कारण पाकर देवादिककी प्रतीति हो, व व्रत-तपका अंगीकार हो, पश्चात् तत्त्वविचार करे; परन्तु सम्यक्त्वका अधिकारी तत्त्वविचार होनेपर ही होता है । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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