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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २५२] [मोक्षमार्गप्रकाशक इसका अर्थ है :- इस निश्चयको अंगीकार करनेके लिये व्यवहार द्वारा उपदेश देते हैं; परन्तु व्यवहारनय है सो अंगीकार करने योग्य नहीं है। प्रश्न :- व्यवहार बिना निश्चयका उपदेश कैसे नहीं होता? और व्यवहारनय कैसे अंगीकार नहीं करना ? सो कहिये। समाधान :- निश्चयसे तो आत्मा परद्रव्योंसे भिन्न, स्वभावसे अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु है; उसे जो नहीं पहिचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहें तब तो वे समझ नहीं पायें। इसलिये उनको व्यवहारनयसे शरीरादिक परद्रव्योंकी सापेक्षता द्वारा नर-नारकपृथ्वीकायादिरूप जीवके विशेष किये - तब मनुष्य जीव है, नारकी जीव है, इत्यादि प्रकार सहित उन्हें जीवकी पहिचान हुई। ___ अथवा अभेद वस्तुमें भेद उत्पन्न करके ज्ञान-दर्शनादि गुण-पर्यायरूप जीवके विशेष किये, तब जाननेवाला जीव है, देखनेवाला जीव है; - इत्यादि प्रकार सहित उनको जीवकी पहिचान हुई। ___ तथा निश्चयसे वीतरागभाव मोक्षमार्ग है; उसे जो नहीं पहिचानते उनको ऐसे ही कहते रहें तो वे समझ नहीं पायें। तब उनको व्यवहारनयसे, तत्त्वश्रद्धान-ज्ञानपूर्वक परद्रव्यके निमित्त मिटनेकी सापेक्षता द्वारा व्रत, शील, संयमादिरूप वीतरागभावके विशेष बतलाये; तब उन्हें वीतरागभावकी पहिचान हुई। इसी प्रकार अन्यत्र भी व्यवहार बिना निश्चयके उपदेशका न होना जानना। तथा यहाँ व्यवहारसे नर-नारकादि पर्यायहीको जीव कहा, सो पर्यायहीको जीव नहीं मान लेना। पर्याय तो जीव-पुद्गलके संयोगरूप हैं। वहाँ निश्चयसे जीवद्रव्य भिन्न है, उसहीको जीव मानना। जीवके संयोगसे शरीरादिकको भी उपचारसे जीव कहा, सो कथन मात्र ही है, परमार्थसे शरीरादिक जीव होते नहीं - ऐसा ही श्रद्धान करना। तथा अभेद आत्मामें ज्ञान-दर्शनादि भेद किये, सो उन्हें भेदरूप ही नहीं मान लेना, क्योंकि भेद तो समझानेके अर्थ किये हैं। निश्चयसे आत्मा अभेद ही है; उसहीको जीव वस्तु मानना। संज्ञा-संख्यादिसे भेद कहे सो कथन मात्र ही हैं; परमार्थसे भिन्न-भिन्न हैं नहीं,ऐसा ही श्रद्धान करना। तथा परद्रव्यका निमित्त मिटानेकी अपेक्षासे व्रत-शील-संयमादिकको मोक्षमार्ग कहा, सो इन्हींको मोक्षमार्ग नहीं मान लेना; क्योंकि परद्रव्यका ग्रहण-त्याग आत्माके हो तो आत्मा परद्रव्यका कर्ता-हर्ता हो जाये। परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्यके आधीन है नहीं ; इसलिये आत्मा अपने भाव रागादिक हैं उन्हें छोड़कर वीतरागी होता है; इसलिये निश्चयसे वीतरागभाव ही मोक्षमार्ग है। वीतरागभावोंके और व्रतादिकके कदाचित् कार्य-कारणपना है, Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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