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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार ] [२४५ तुषसहित चावलका संग्रह करता था; उसे देखकर कोई भोला तुषोंको ही चावल मानकर संग्रह करे तो वृथा खेदखिन्न ही होगा। वैसे चारित्र दो प्रकारका है - एक सराग है, एक वीतराग है। वहाँ ऐसा जानना कि जो राग है वह चारित्रका स्वरूप नहीं है, चारित्रमें दोष है। तथा कितने ही ज्ञानी प्रशस्तरागसहित चारित्रका धारण करते हैं; उन्हें देखकर कोई अज्ञानी प्रशस्तरागको ही चारित्र मानकर संग्रह करे तो वृथा खेदखिन्न ही होगा। यहाँ कोई कहेगा कि पापक्रिया करनेसे तीव्र रागादिक होते थे, अब इन क्रियाओंको करने पर मन्द राग हआ; इसलिये जितने अंशमें रागभाव कम हुआ उतने अंशोंमेंतो चारित्र कहो, जितने अंशोंमें राग रहा उतने अंशोंमें राग कहो। - इस प्रकार उसके सराग चारित्र सम्भव है। समाधान :- यदि तत्त्वज्ञानपूर्वक ऐसा हो, तबतो तुम कहते हो उसी प्रकार है। तत्त्वज्ञानके बिना उत्कृष्ट ( उग्र) आचरण होनेपर भी असंयम नाम ही पाता है, क्योंकि रागभाव करनेका अभिप्राय नहीं मिटता। वही बतलाते हैं :- द्रव्यलिंगी मुनि राज्यादिकको छोड़कर निर्ग्रन्थ होता है, अट्ठाईस मूलगुणोंका पालन करता है, उग्रसे उग्र अनशनादि बहुत तप करता है, क्षुधादिक बाईस परीषह सहता है, शरीरके खंड-खंड होनेपर भी व्यग्र नही होता, व्रतभंगके अनेक कारण मिलने पर भी दृढ़ रहता है, किसीसे क्रोध नहीं करता, ऐसे साधनोंका मान नहीं करता , ऐसे साधनोंमें कोई कपट नहीं है, इन साधनों द्वारा इस लोक-परलोकके विषयसुखको नहीं चाहता; ऐसी उसकी दशा हुई है। यदि ऐसी दशा न हो तो ग्रैवेयक पर्यन्त कैसे पहुँचे ? परन्तु उसे मिथ्यादृष्टि असंयमी ही शास्त्रमें कहा है। उसका कारण यह है कि उसके तत्त्वोंका श्रद्धान-ज्ञान सच्चा नहीं हुआ है। पहले वर्णन किया उस प्रकार तत्त्वोंका श्रद्धान-ज्ञान हुआ है; उसी अभिप्रायसे सर्व साधन करता है; परन्तु उन साधनोंके अभिप्राय की परम्पराका विचार करने पर कषायोंका अभिप्राय आता है। किस प्रकार? सो सुनो :- यह पापके कारण रागादिकको तो हेय जानकर छोड़ता है; परन्तु पुण्यके कारण प्रशस्तरागको उपादेय मानता है, उसकी वृद्धिका उपाय करता है, सो प्रशस्तराग भी तो कषाय है। कषायको उपादेय माना तब कषाय करनेका ही श्रद्धान रहा। अप्रशस्त परद्रव्योंसे द्वेष करके प्रशस्त परद्रव्योंमें राग करनेका अभिप्राय हुआ, कुछ परद्रव्योंमें साम्यभावरूप अभिप्राय नहीं हुआ। यहाँ प्रश्न है कि सम्यग्दृष्टि भी तो प्रशस्तरागका उपाय रखता है ? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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