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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार ] [२३५ तथा व्यवहारदृष्टिसे सम्यग्दर्शनके आठ अंग कहे है उनको यह पालता है, पच्चीस दोष कहे हैं उनको टालता है, संवेगादिक गुण कहे हैं उनको धारण करता है; परन्तु जैसे बीज बोए बिना खेतके सब साधन करनेपर भी अन्न नहीं होता; उसी प्रकार सच्चा तत्त्वश्रद्धान हुए बिना सम्यक्त्व नहीं होता। पंचास्तिकाय व्याख्यामें जहाँ अन्तमें व्यवहाराभासवालेका वर्णन किया है वहाँ ऐसा ही कथन किया है। इसप्रकार इसको सम्यग्दर्शनके अर्थ साधन करनेपर भी सम्यग्दर्शन नहीं होता। सम्यग्ज्ञानका अन्यथारूप अब, शास्त्रमें सम्यग्ज्ञानके अर्थ शास्त्राभ्यास करनेसे सम्यग्ज्ञान होना कहा है; इसलिये यह शास्त्राभ्यासमें तत्पर रहता है। वहाँ सीखना, सिखाना, याद करना, बाँचना, पढ़ना आदि क्रियाओंमें तो उपयोग को रमाता है; परन्तु उसके प्रयोजन पर दृष्टि नहीं है। इस उपदेशमें मुझे कार्यकारी क्या है, सो अभिप्राय नहीं है; स्वयं शास्त्राभ्यास करके औरोंको सम्बोधन देनेका अभिप्राय रखता है, और बहुतसे जीव उपदेश मानें वहाँ सन्तुष्ट होता है; परन्तु ज्ञानाभ्यास तो अपने लिये किया जाता है और अवसर पाकर परका भी भला होता हो ता परका भी भला करे। तथा कोई उपदेश न सुने तो मत सुनों- स्वयं क्यों विषाद करे? शास्त्रार्थका भाव जानकर अपना भला करना। तथा शास्त्राभ्यासमें भी कितने ही तो व्याकरण, न्याय, काव्य आदि शास्त्रोंका बहुत अभ्यास करते हैं; परन्तु वे तो लोकमें पांडित्य प्रगट करनेके कारण हैं, उनमें आत्महितका निरूपण तो है नहीं। इनका तो प्रयोजन इतना ही है कि अपनी बुद्धि बहुत हो तो थोड़ा बहुत इनका अभ्यास करके पश्चात् आत्महितके साधक शास्त्रोंका अभ्यास करना। यदि बुद्धि थोड़ी हो तो आत्महितके साधक सुगम शास्त्रोंका ही अभ्यास करे। ऐसा नहीं करना कि व्याकरणादिका ही अभ्यास करते-करते आयु पूर्ण हो जाये और तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति न बने। यहाँ कोई कहे – ऐसा है तो व्याकरणादिका अभ्यास नहीं करना चाहिये ? उससे कहते हैं कि उनके अभ्यासके बिना महान ग्रन्थोंका अर्थ खुलता नहीं है, इसलिये उनका भी अभ्यास करना योग्य है। फिर प्रश्न है कि - महान ग्रन्थ ऐसे क्यों बनाये जिनका अर्थ व्याकरणादिके बिना न खुले ? भाषा द्वारा सुगमरूप हितोपदेश क्यों नहीं लिखा ? उनके कुछ प्रयोजन तो था नहीं ? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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