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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २१८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक हैं। सो अन्यमतोंमें भी ये कार्य तो पाये जाते हैं; इसलिये इन लक्षणोंमें तो अतिव्याप्ति पाया जाता है। कोई कहे जैसे जिनधर्ममें ये कार्य हैं, वैसे अन्यमतोंमें नहीं पाये जाते; इसलिये अतिव्याप्ति नहीं है ? - समाधान :- यह तो सत्य है, ऐसा ही है । परन्तु जैसे तू दयादिक मानता है उसी प्रकार तो वे भी निरूपण करते हैं। परजीवोंकी रक्षाको दया तू कहता है, वही वे कहते हैं। इसी प्रकार अन्य जानना । फिर वह कहता है हिंसा प्ररूपित करते हैं ? - उनके ठीक नहीं है; क्योंकि कभी दया प्ररूपित करते हैं, कभी उत्तर :- वहाँ दयादिकका अंशमात्र तो आया; इसलिये अतिव्याप्तिपना इन लक्षणोंके पाया जाता है। इनके द्वारा सच्ची परीक्षा होती नहीं । तो कैसे होती है ? जिनधर्ममें सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रको मोक्षमार्ग कहा है। वहाँ सच्चे देवादिक व जीवादिकका श्रद्धान करनेसे सम्यक्त्व होता है, व उनको जाननेसे सम्यग्ज्ञान होता है, व वास्तवमें रागादिक मिटने पर सम्यक्चारित्र होता है । सो इनके स्वरूपका जैसा जिनमतमें निरूपण किया है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं किया, तथा जैनीके सिवाय अन्यमती ऐसा कार्य कर नहीं सकते । इसलिये यह जिनमतका सच्चा लक्षण है। इस लक्षणको पहिचानकर जो परीक्षा करते हैं ही श्रद्धानी हैं। इसके सिवाय जो अन्य प्रकार से परीक्षा करते हैं वे मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं । तथा कितने ही संगतिसे जैनधर्म धारण करते हैं, कितने ही महान पुरुषको जिनधर्ममें प्रवर्तता देख आप भी प्रवर्तते हैं, कितने ही देखादेखी जिनधर्मकी शुद्ध या अशुद्ध क्रियाओंमें प्रवर्तते हैं। - इत्यादि अनेक प्रकारके जीव आप विचारकर जिनधर्मका रहस्य नहीं पहिचानते और जैनी नाम धारण करते हैं । वे सब मिथ्यादृष्टि ही जानना । इतना तो है कि जिनमतमें पापकी प्रवृत्ति विशेष नहीं हो सकती और पुण्यके निमित्त बहुत हैं, तथा सच्चे मोक्षमार्गके कारण भी वहाँ बने रहते हैं; इसलिये जो कुलादिसे भी जैनी हैं, वे भी औरोंसे तो भले ही हैं । [ सांसारिक प्रयोजनार्थ धर्मधारक व्यवहाराभासी ] तथा जो जीव कपटसे आजीविकाके अर्थ, व बड़ाईके अर्थ, व कुछ विषय–कषायसम्बन्धी प्रयोजन विचारकर जैनी होते हैं; वे तो पापी ही हैं। अति तीव्र कषाय होनेपर ऐसी Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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