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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २१६ ] [मोक्षमार्गप्रकाशक फिर वह कहता है - छद्मस्थसे अन्यथा परीक्षा हो जाये तो वह क्या करे ? समाधान :- सच्ची-झूठी दोनों वस्तुओंको कसनेसे और प्रमाद छोड़कर परीक्षा करनेसे तो सच्ची ही परीक्षा होती है। जहाँ पक्षपातके कारण भलेप्रकार परीक्षा न करे, वहीं अन्यथा परीक्षा होती है। तथा वह कहता है कि शास्त्रोंमें परस्पर विरुद्ध कथन तो बहुत हैं, किन-किनकी परीक्षा की जाये? समाधान :- मोक्षमार्गमें देव-गुरु-धर्म, जीवादि तत्त्व व बन्ध-मोक्षमार्ग प्रयोजनभूत हैं, सो इनकी परीक्षा कर लेना। जिन शास्त्रोंमें यह सच्चे कहे हों उनकी सर्व आज्ञा मानना, जिनमें यह अन्यथा प्ररूपित किये हों उनकी आज्ञा नहीं मानना। जैसे – लोकमें जो पुरुष प्रयोजनभूत कार्यों में झूठ न बोले, वह प्रयोजनरहित कार्यों में कैसे झूठ बोलेगा? उसी प्रकार जिस शास्त्रमें प्रयोजनभूत देवादिकका स्वरूप अन्यथा नहीं कहा, उसमें प्रयोजनरहित द्वीप-समुद्रादिकका कथन अन्यथा कैसे होगा? क्योंकि देवादिकका कथन अन्यथा करनेसे वक्ताके विषय-कषायका पोषण होता है। प्रश्न :- देवादिकका अन्यथा कथन तो विषय-कषायवश किया; परन्तु उन्हीं शास्त्रोंमें अन्य कथन अन्यथा किसलिये किये? समाधान :- यदि एक ही कथन अन्यथा करे तो उसका अन्यथापना शीघ्र प्रगट हो जायेगा और भिन्न पद्धति ठहरेगी नहीं; इसलिये बहुत कथन अन्यथा करनेसे भिन्न पद्धति ठहरेगी। वहाँ तुच्छबुद्धि भ्रममें पड़ जाते हैं कि यह भी मत है, यह भी मत है। इसलिये प्रयोजनभूतका अन्यथापना मिलाने के लिये अप्रयोजनभूत कथन भी अन्यथा बहुत किये हैं तथा प्रतीति करानेके अर्थ कोई-कोई सच्चे कथन भी किये हैं। परन्तु जो चतुर हो सो भ्रममें नहीं पड़ता। प्रयोजनभूत कथनकी परीक्षा करके जहाँ सत्य भसित हो, उस मतकी सर्व आज्ञा माने। सो परीक्षा करने पर जैनमत ही सत्य भासित होता है - अन्य नहीं; क्योंकि इसके वक्ता सर्वज्ञ-वीतराग हैं, वे झूठ किसलिये कहेंगे? इसप्रकार जिनआज्ञा माननेसे जो सच्चा श्रद्धान हो, उसका नाम आज्ञासम्यक्त्व है। और वहाँ एकाग्र चितवन होनेसे उसीका नाम आज्ञाविचय धर्मध्यान है। यदि ऐसा न मानें और बिना परीक्षा किये ही आज्ञा माननेसे सम्यक्त्व व धर्मध्यान हो जाये तो जो द्रव्यलिंगी आज्ञा मानकर मुनि हुए, आज्ञानुसार साधन द्वारा ग्रैवेयक पर्यन्त जाते हैं; उनके मिथ्यादृष्टिपना कैसे रहा ? इसलिये कुछ परीक्षा करके आज्ञा मानने पर ही Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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