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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार] [२१३ परिणति करनेका श्रद्धान व ज्ञान व आचरण मिट जाये तब सम्यग्दर्शनादि होते हैं। यदि परद्रव्यका परद्रव्यरूप श्रद्धानादि करनेसे सम्यग्दर्शनादि न होते हों तो केवलीके भी उनका अभाव हो। जहाँ परद्रव्यको बुरा जानना , निजद्रव्यको भला जानना हो; वहाँ तो राग-द्वेष सहज ही हुए, जहाँ आपको आपरूप और परको पररूप यथार्थ जानता रहे, वैसे ही श्रद्धानादिरूप प्रवर्तन करे; तभी सम्यग्दर्शनादि होते हैं - ऐसा जानना। इसलिये बहुत क्या कहें - जिसप्रकारसे रागादि मिटानेका श्रद्धान हो वही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, जिसप्रकारसे रागादि मिटानेका जानना हो वही जानना सम्यग्ज्ञान है, तथा जिसप्रकारसे रागादि मिटें वही आचरण सम्यक्चारित्र है; ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है। इस प्रकार निश्चयनयके आभाससहित एकान्तपक्षके धारी जैनाभासोंके मिथ्यात्वका निरूपण किया। व्यवहाराभासी मिथ्यादृष्टि अब, व्यवहाराभासपक्षके धारक जैनाभासोंके मिथ्यात्वका निरूपण करते हैं : जिनागममें जहाँ व्यवहारकी मुख्यतासे उपदेश है, उसे मानकर बाह्यसाधनादिकहीका श्रद्धानादिक करते हैं, उनके सर्वधर्मके अंग अन्यथारूप होकर मिथ्याभावको प्राप्त होते हैं - सो विशेष कहते हैं। यहाँ ऐसा जान लेना कि व्यवहारधर्मकी प्रवृत्तिसे पुण्यबन्ध होता है, इसलिये पापप्रवत्ति की अपेक्षा तो इसका निषेध है नहीं; परन्तु यहाँ जो जीव व्यवहारप्रवृत्तिहीसे सन्तुष्ट होकर सच्चे मोक्षमार्गमें उद्यमी नहीं होते हैं, उन्हें मोक्षमार्गमें सन्मुख करनेके लिये उस शुभरूप मिथ्याप्रवृत्ति का भी निषेधरूप निरूपण करते हैं। यह जो कथन करते हैं उसे सुनकर यदि शुभप्रवृत्ति छोड़ अशुभमें प्रवृत्ति करोगे तब तो तुम्हारा बुरा होगा; और यदि यथार्थ श्रद्धान करके मोक्षमार्गमें प्रवर्तन करोगे तो तुम्हारा भला होगा। जैसे – कोई रोगी निर्गुण औषधीका निषेध सुनकर औषधी साधनको छोड़कर कुपथ्य करे तो वह मरेगा, उसमें वैद्यका कुछ दोष नहीं है; उसी प्रकार कोई संसारी पुण्यरूप धर्मका निषेध सुनकर धर्मसाधन छोड़ विषय-कषायरूप प्रवर्तन करेगा तो वही नरकादिमें दुःख पायेगा। उपदेशदाताका तो दोष है नहीं। उपदेश देनेवाले का अभिप्राय तो असत्य श्रद्धानादि छुड़ाकर मोक्षमार्गमें लगानेका जानना। सो ऐसे अभिप्रायसे यहाँ निरूपण करते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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