SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २१० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक भी आस्रव-बन्ध अधिक हैं तथा गुणश्रेणी निर्जरा नहीं है; पाँचवें - छट्ठे गुणस्थानमें आहारविहारादि क्रिया होनेपर परद्रव्य चिंतवनसे भी आस्रव-बन्ध थोड़ा है और गुणश्रेणी निर्जरा होती रहती है। इसलिये स्वद्रव्य - परद्रव्यके चिंतवनसे निर्जरा-बन्ध नहीं होते, रागादि घटनेसे निर्जरा है और रागादि होनेसे बन्ध है । उसे रागादिके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान नहीं है, इसलिये अन्यथा मानता है । अब वह पूछता है कि ऐसा है तो निर्विकल्प अनुभवदशामें नय - प्रमाण-निक्षेपादिकके तथा दर्शन-ज्ञानादिकके भी विकल्पोंका निषेध किया है – सो किस प्रकार है ? उत्तर :- जो जीव इन्हीं विकल्पोंमें लगे रहते हैं और अभेदरूप एक आत्माका अनुभव नहीं करते उन्हें ऐसा उपदेश दिया है कि यह सर्व विकल्प वस्तुका निश्चय करनेमें कारण है, वस्तुका निश्चय होनेपर इनका प्रयोजन कुछ नहीं रहता; इसलिये इन विकल्पोंको भी छोड़कर अभेदरूप एक आत्माका अनुभव करना, इनके विचाररूप विकल्पोंमें ही फँसा रहना योग्य नहीं है । तथा वस्तुका निश्चय होनेके पश्चात ऐसा नहीं है कि सामान्यरूप स्वद्रव्यहीका चिंतवन रहा करे। स्वद्रव्यका तथा परद्रव्यका सामान्यरूप और विशेषरूप जानना होता है, परन्तु वीतरागता सहित होता है; उसीका नाम निर्विकल्पदशा है। वहाँ वह पूछता है — यहाँ तो बहुत विकल्प हुए, निर्विकल्प संज्ञा कैसे संम्भव है ? उत्तर :- निर्विचार होनेका नाम निर्विकल्प नहीं है; क्योंकि छद्मस्थके जानना विचार सहित है, उसका अभाव माननेसे ज्ञानका अभाव होगा और तब जड़पना हुआ; सो आत्माके होता नहीं है। इसलिये विचार तो रहता है । तथा यह कहे कि एक सामान्यका ही विचार रहता है, विशेषका नहीं। तो सामान्यका विचार तो बहुत काल रहता नहीं है व विशेषकी अपेक्षा बिना सामान्यका स्वरूप भासित नहीं होता। तथा यह कहे कि अपना ही विचार रहता है, परका नहीं; तो परमें परबुद्धि हुए बिना अपनेमें निजबुद्धि कैसे आये ? वहाँ वह कहता समयसारमें ऐसा कहा है : भावयेद्भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया । तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते ।। ( कलश १३० ) Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy