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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २०८] [ मोक्षमार्गप्रकाशक न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनः" ' इत्यादि कलशमें स्वच्छन्दी होनेका निषेध किया है। बिना इच्छाके जो कार्य हो वह कर्म बन्धका कारण नहीं है। अभिप्रायसे कर्ता होकर करे और ज्ञाता रहे यह तो बनता नहीं है - इत्यादि निरूपण किया है। इसलिये रागादिकको बुरे – अहितकारी जानकर उनके नाश के अर्थ उद्यम रखना। वहाँ अनुक्रमसे पहले तीव्र रागादि छोड़नेके अर्थ अशुभ कार्य छोड़कर शुभमें लगना, और पश्चात् मन्दरागादि भी छोड़नेके अर्थ शुभको भी छोड़कर शुद्धोपयोगरूप होना। तथा कितने ही जीव अशुभमें क्लेश मानकर व्यापारादि कार्य व स्त्री-सेवनादि कार्योंको भी घटाते हैं, तथा शुभको हेय जानकर शास्त्राभ्यासादि कार्यों में नहीं प्रवर्तते हैं, वीतरागभावरूप शुद्धोपयोगको प्राप्त हुए नहीं हैं; इसलिए वे जीव अर्थ, काम, धर्म, मोक्षरूप पुरुषार्थसे रहित होते हुए आलसी-निरुद्यमी होते हैं। उनकी निन्दा पंचास्तिकाय की व्याख्यामें की है। उनके लिये दृष्टान्त दिया है कि जैसे बहुत खीर-शक्कर खाकर पुरुष आलसी होता है व जैसे वृक्ष निरुद्यमी है; वैसे वे जीव आलसी-निरुद्यमी हुए हैं। अब इनसे पूछते हैं कि तुमने बाह्य तो शुभ-अशुभ कार्योंको घटाया, परन्तु उपयोग तो बिना आलम्बनके रहता नहीं है; तो तुम्हारा उपयोग कहाँ रहता है ? सो कहो। यदि वह कहे कि आत्माका चिंतवन करता है, तो शास्त्रादि द्वारा अनेक प्रकारसे आत्माके विचारको तो तुमने विकल्प ठहराया, और आत्माका कोई विशेषण जाननेमें बहुत काल लगता नहीं है, बारम्बार एकरूप चिंतवनमें छद्मस्थका उपयोग लगता नहीं है, गणधरादिकका भी उपयोग इसप्रकार नहीं रह सकता, इसलिये वे भी शास्त्रादि कार्यों में प्रवर्तते हैं, तेरा उपयोग गणधरादिकसे भी कैसे शुद्ध हुआ माने ? इसलिये तेरा कहना प्रमाण नहीं है। जैसे कोई व्यापारादिमें निरुद्यमी होकर निठल्ला जैसे-तैसे काल गँवाता है; उसीप्रकार तू धर्ममें निरुद्यमी होकर प्रमाद सहित यों ही काल गँवाता है। कभी कुछ चितवन सा करता है, कभी बातें बनाता है, कभी भोजनादि करता है; परन्तु अपना उपयोग निर्मल करनेके लिए शास्त्राभ्यास, तपश्चरण, भक्ति आदि कर्मों में नहीं प्रवर्तता। सूना-सा होकर प्रमादि होनेका नाम शुद्धोपयोग ठहराता है। वहाँ क्लेश थोड़ा होनेसे जैसे कोई आलसी बनकर पड़े रहनेमें सुख माने वैसे आनन्द मानता है। १ तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनां तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृतिः । अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च।। ( समयसार कलश १६६) २ गाथा १७२ की टीका में । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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