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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २००] [मोक्षमार्गप्रकाशक तथा इसीप्रकार केवल शब्दका अर्थ जानना - 'जो परभावसे भिन्न निःकेवल आप ही' – उसका नाम केवल है। इसी प्रकार अन्य यथार्थ अर्थका अवधारण करना। पर्याय अपेक्षा शुद्धपना माननेसे तथा अपनेको केवली माननेसे महाविपरीतता होती है, इसलिये अपनेको द्रव्य-पर्यायरूप अवलोकन करना। द्रव्यसे सामान्यस्वरूप अवलोकन करना, पर्यायमें अवस्था विशेष अवधारण करना। इसी प्रकार चितवन करनेसे सम्यग्दृष्टि होता है, क्योंकि सच्चा अवलोकन किये बिना सम्यग्दृष्टि नाम कैसे प्राप्त करे ? निश्चयाभासी की स्वच्छन्दता और उसका निषेध तथा मोक्षमार्गमें तो रागादिक मिटानेका श्रद्धा-ज्ञान-आचरण करना है; वह तो विचार ही नहीं है, अपने शुद्ध अनुभवनमें ही अपनेको सम्यग्दृष्टि मानकर अन्य सर्व साधनोंका निषेध करता है। शास्त्राभ्यास करना निरर्थक बतलाता है, द्रव्यादिकके तथा गुणस्थान-मार्गणात्रिलोकादिकके विचारको विकल्प ठहराता है. तपश्चरण करनेको वथा क्लेश करना मा है, व्रतादिक धारण करनेको बन्धनमें पड़ना ठहराता है, पूजनादि कार्योंको शुभास्रव जानकर हेय प्ररूपित करता है; - इत्यादि सर्वसाधनोंको उठाकर प्रमादी होकर परिणमित होता है। यदि शास्त्राभ्यास निरर्थक हो तो मुनियों के भी तो ध्यान और अध्ययन दो ही कार्य मुख्य हैं। ध्यान में उपयोग न लगे तब अध्ययनहीमें उपयोगको लगाते हैं, बीचमें अन्य स्थान उपयोग लगाने योग्य नहीं है। तथा शास्त्राभ्यास द्वारा तत्त्वोंको विशेष जाननेसे सम्यग्दर्शनज्ञान निर्मल होता है। तथा वहाँ जब तक उपयोग रहे तब तक कषाय मन्द रहे और आगामी वीतरागभावोंकी वृद्धि हो; ऐसे कार्यको निरर्थक कैसे माने ? तथा वह कहता है कि जिन शास्त्रोंमें अध्यात्म-उपदेश है उनका अभ्यास करना, अन्य शास्त्रोंके अभ्याससे कोई सिद्धि नहीं है। उससे कहते हैं – यदि तेरे सच्ची दृष्टि हुई है तो सभी जैन शास्त्र कार्यकारी हैं। वहाँ भी मुख्यतः अध्यात्म-शास्त्रोंमें तो आत्मस्वरूपका मुख्य कथन है; सो सम्यग्दृष्टि होने पर आत्मस्वरूपका निर्णयतो हो चुका, तब तो ज्ञानकी निर्मलताके अर्थ व उपयोगको मन्दकषायरूप रखनेके अर्थ अन्य शास्त्रोंका अभ्यास मुख्य चाहिये। तथा आत्मस्वरूपका निर्णय हुआ है, उसे स्पष्ट रखनेके अर्थ अध्यात्म-शास्त्रोंका भी अभ्यास चाहिये; परन्तु अन्य शास्त्रोंमें अरुचि तो नहीं होना चाहिये। जिसको अन्य शास्त्रोंकी अरुचि है उसे अध्यात्मकी रूचि सच्ची नहीं है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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