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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार] [१९७ उद्यम नहीं करता, उसे निमित्तकारण की मुख्यतासे रागादिक परभाव हैं - ऐसा श्रद्धान कराया है। दोनों विपरीत श्रद्धानोंसे रहित होनेपर सत्य श्रद्धान होगा तब ऐसा मानेगा कि ये रागादिक भाव आत्मा का स्वभाव तो नहीं हैं, कर्मके निमित्तसे आत्मा के अस्तित्व में विभाव पर्यायरूप से उत्पन्न होते हैं, निमित्त मिटने पर इनका नाश होने से स्वभावभाव रह जाता है; इसलिये इनके नाश का उद्यम करना। यहाँ प्रश्न है कि यदि कर्मके निमित्तसे होते हैं तो कर्मका उदय रहेगा तब तक यह विभाव दूर कैसे होंगे? इसलिये इसका उद्यम करना तो निरर्थक है ? उत्तर :- एक कार्य होने में अनेक कारण चाहिये। उनमें जो कारण बुद्धिपूर्वक हों उन्हें तो उद्यम करके मिलाये, और अबुद्धिपूर्वक कारण स्वयमेव मिलें तब कार्यसिद्धि होती है। जैसे - पुत्र होने का कारण बुद्धिपूर्वक तो विवाहादि करना है, और अबुद्धिपूर्वक भवितव्य है; वहाँ पुत्रका अर्थी विवाहादिका तो उद्यम करे, और भवितव्य स्वयमेव हो तब पुत्र होगा। उसी प्रकार विभाव दूर करने के कारण बुद्धिपूर्वक तो तत्त्वविचारादि हैं, और अबुद्धिपूर्वक मोहकर्मके उपशमादिक हैं; सो उसका अर्थी तत्त्वविचारादिकका तो उद्यम करे, और मोहकर्मके उपशमादिक स्वयमेव हों तब रागादिक दूर होते हैं। यहाँ ऐसा कहते हैं कि जैसे विवाहादिक भी भवितव्य आधीन हैं; उसी प्रकार तत्त्वविचारादिक भी कर्मके क्षयोपशमादिकके आधीन हैं; इसलिये उद्यम करना निरर्थक है? उत्तर :- ज्ञानावरणका तो क्षयोपशम तत्त्वविचारादिक करने योग्य तेरे हुआ है; इसलिये उपयोगको वहाँ लगानेका उद्यम कराते हैं। असंज्ञी जीवोंके क्षयोपशम नहीं है, तो उन्हें किसलिये उपदेश दें? तब वह कहता है – होनहार हो तो वहाँ उपयोग लगे, बिना होनहार कैसे लगे ? उत्तर :- यदि ऐसा श्रद्धान है तो सर्वत्र किसी भी कार्यका उद्यम मत कर। तू खान-पान-व्यापारादिकका तो उद्यम करता है और यहाँ होनहार बतलाता है। इससे मालूम होता है कि तेरा अनुराग यहाँ नहीं है, मानादिकसे ऐसी झूठी बातें बनाता है। इसप्रकार जो रागादिक होते हुए आत्माको उनसे रहित मानते हैं, उन्हें मिथ्यादृष्टि जानना। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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