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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १८६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक उत्तर :- जिस प्रकार राजाकी स्थापना चित्रादि द्वारा करे तो वह राजाका प्रतिपक्षी नहीं है, और कोई सामान्य मनुष्य अपनेको राजा मनाये तो राजाका प्रतिपक्षी होता है, उसी प्रकार अरहन्तादिककी पाषाणादिमें स्थापना बनाये तो उनका प्रतिपक्षी नहीं है, और कोई सामान्य मनुष्य अपनेको मुनि मनाये तो वह मुनियोंका प्रतिपक्षी हुआ। इस प्रकार भी स्थापना होती हो तो अपनेको अरहन्त भी मनाओ! और यदि उनकी स्थापना है तो बाह्यमें तो वैसा ही होना चाहिये; परन्तु वे निर्ग्रन्थ, यह बहुत परिग्रहके धारी यह कैसे बनता है ? तथा कोई कहे श्रावक वैसे मुनि ? - अब श्रावक भी तो जैसे सम्भव हैं वैसे नहीं हैं, इसलिये जैसे उत्तर :- श्रावकसंज्ञा तो शास्त्रमें सर्व गृहस्थ जैनियोंको है। श्रेणिक भी असंयमी था, उसे उत्तरपुराणमें श्रावकोत्तम कहा है। बारह सभाओंमें श्रावक कहे हैं वहाँ सर्व व्रतधारी नहीं थे। यदि सर्व व्रतधारी होते तो असंयत मनुष्योंकी अलग संख्या कही जाती, सो नहीं कही है; इसलिये गृहस्थ जैन श्रावक नाम प्राप्त करता है। और मुनिसंज्ञा तो निर्ग्रन्थके सिवा कहीं कही नहीं है। तथा श्रावकके तो आठ मूलगुण कहे हैं। इसलिये मद्य, मांस, मधु, पाँच उदम्बरादि फलोंका भक्षण श्रावकोंके है नहीं; इसलिये किसी प्रकारसे श्रावकपना तो सम्भावित भी है; परन्तु मुनिके अट्ठाईस मूलगुण हैं सो वेषियोंके दिखायी ही नहीं देते, इसलिये मुनिपना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। तथा गृहस्थ अवस्थामें तो पहले जम्बूकुमारादिकने बहुत हिंसादि कार्य किये सुने जाते हैं; मुनि होकर तो किसीने हिंसादिक कार्य किये नहीं हैं, परिग्रह रखा नहीं है; इसलिये ऐसी युक्ति कार्यकारी नहीं है। देखो, आदिनाथजीके साथ चार हजार राजा दीक्षा लेकर पुनः भ्रष्ट हुए, तब देव उनसे कहने लगे – ' जिनलिंगी होकर अन्यथा प्रवर्तोगे तो हम दंड देंगे। जिनलिंग छोड़कर जो तुम्हारी इच्छा हो सो तुम जानो' । इसलिये जिनलिंगी कहलाकर अन्यथा प्रवर्ते, वे तो दंडयोग्य हैं; वंदनादि - योग्य कैसे होंगे ? अब अधिक क्या कहें! जिनमतमें कुवेष धारण करते हैं वे महापाप करते हैं; अन्य जीव जो उनकी सुश्रुषा आदि करते हैं वे भी पापी होते । पद्मपुराणमें यह कथा है कि श्रेष्ठी धर्मात्माने चारण मुनियोंको भ्रमसे भ्रष्ट जानकर आहार नहीं दिया; तब जो प्रत्यक्ष भ्रष्ट हैं उन्हें दानादिक देना कैसे सम्भव है ? Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com -
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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