SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १७८] [मोक्षमार्गप्रकाशक हैं उनको धारण करते हैं; परन्तु उन शास्त्रोंके कर्ता पापियों ने सुगम क्रिया करनेसे उच्चपद प्ररूपित करनेमें हमारी मान्यता होगी व अन्य बहुत जीव इस मार्गमें लग जायेंगे, इस अभिप्रायसे मिथ्या उपदेश दिया है। उसकी परम्परासे विचार रहित जीव इतना भी विचार नहीं करते कि – सुगमक्रियासे उच्चपद होना बतलाते हैं सो यहाँ कुछ दगा है। भ्रमसे उनके कहे हुए मार्गमें प्रवर्त्तते हैं। तथा कोई शास्त्रोंमें तो कठिन मार्ग निरूपित किया है वह तो सधेगा नहीं और अपना ऊँचा नाम धराये बिना लोग मानेंगे नहीं; इस अभिप्रायसे यति, मुनि, आचार्य, उपाध्याय, साधु, भट्टारक, संन्यासी, योगी, तपस्वी, नग्न - इत्यादि नाम तो ऊँचा रखते हैं और इनके आचारोंको साध नहीं सकते; इसलिये इच्छानुसार नाना वेष बनाते हैं। तथा कितने ही अपनी इच्छानुसार ही नवीन नाम धारण करते हैं और इच्छानुसार ही वेष बनाते इस प्रकार अनेक वेष धारण करनेसे गुरुपना मानते हैं; सो यह मिथ्या है। यहाँ कोई पूछे कि - वेष तो बहुत प्रकारसे दिखते हैं, उनमें सच्चे-झूठे वेषकी पहिचान किस प्रकार होगी? समाधान :- जिन वेषोंमें विषय-कषायका किंचित् लगाव नहीं है वे वेष सच्चे हैं। वे सच्चे वेष तीन प्रकारके हैं; अन्य सर्व वेष मिथ्या हैं। वही “षट्पाहुड़” में कुन्दकुन्दाचार्यने कहा है : एगं जिणस्स रूवं बिदियं उक्किट्ठसावयाणं तु । अवरट्ठियाण तइयं चउत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि।।१८।। (दर्शनपाहुड़) अर्थ :- एक तो जिनस्वरूप निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनिलिंग, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकोंका रूप - दशवीं, ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावकका लिंग, तीसरा आर्यिकायोंका रूप - यह स्त्रियोंका लिंग – ऐसे यह तीन लिंग तो श्रद्धानपूर्वक हैं तथा चौथा कोई लिंग सम्यग्दर्शनस्वरूप नहीं है। भावार्थ :- इन तीन लिंगके अतिरिक्त अन्य लिंगको जो मानता है वह श्रद्धानी नहीं है, मिथ्यादृष्टि है। तथा इन वेषियों में कितने ही वेषी अपने वेषकी प्रतीति करानेके अर्थ किंचित् धर्मके अंगको भी पालते हैं। जिस प्रकार खोटा रुपया चलानेवाला उसमें कुछ चाँदीका अंश भी रखता है; उसी प्रकार धर्मका कोई अंग दिखाकर अपना उच्चपद मानते हैं। यहाँ कोई कहे कि - जो धर्म साधन किया उसका तो फल होगा? उत्तर :- जिस प्रकार उपवासका नाम रखाकर कणमात्र भी भक्षण करे तो पापी है, और एकात ( एकाशन) का नाम रखाकर किंचित् कम भोजन करे तब भी । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy