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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ १७५ छठवाँ अधिकार ] मिथ्यात्वादि दृढ़ होनेसे मोक्षमार्ग दुर्लभ हो जाता है, यह बड़ा बिगाड़ है, और दूसरे पापबंध होनेसे आगामी दुःख पाते हैं, यह बिगाड़ है। यहाँ पूछे कि मिथ्यात्वादिभाव तो अतत्त्व - श्रद्धानादि होनेपर होते हैं और पापबंध खोटे (बुरे) कार्य करनेसे होता है; सो उनके माननेसे मिथ्यात्वादिक व पापबंध किस प्रकार होंगे ? - उत्तर :- प्रथम तो परद्रव्योंको इष्ट-अनिष्ट मानना ही मिथ्या है, क्योंकि कोई द्रव्य किसीका मित्र-शत्रु है नहीं। तथा जो इष्ट-अनिष्ट पदार्थ पाये जाते हैं उसका कारण पुण्य-पाप है; इसलिये जैसे पुण्यबन्ध हो, पापबन्ध न हो; वह करना। तथा यदि कर्मउदयका भी निश्चय न हो और इष्ट-अनिष्टके बाह्य कारणोंके संयोग-वियोगका उपाय करे; परन्तु कुदेवको माननेसे इष्ट-अनिष्ट बुद्धि दूर नहीं होती, केवल वृद्धिको प्राप्त होती है; तथा उससे पुण्यबंध भी नहीं होता, पापबन्ध होता है । तथा कुदेव किसीको धनादिक देते या छुड़ा लेते नहीं देखे जाते, इसलिये ये बाह्यकारण भी नहीं हैं। इनकी मान्यता किस अर्थ की जाती है? जब अत्यन्त भ्रमबुद्धि हो, जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धान - ज्ञानका अंश भी न हो, और राग-द्वेषकी अति तीव्रता हो; तब जो कारण नहीं हैं उन्हें भी इष्ट-अनिष्टका कारण मानते हैं, तब कुदेवोंकी मान्यता होती है । ऐसे तीव्र मिथ्यात्वादि भाव होनेपर मोक्षमार्ग अति दुर्लभ हो जाता है । कुगुरूका निरूपण और उसके श्रद्धानादिकका निषेध - आगे कुगुरूके श्रद्धानादिकका निषेध करते हैं : जो जीव विषय - कषायादि अधर्मरूप तो परिणमित होते हैं, और मानादिकसे अपनेको धर्मात्मा मानते हैं, धर्मात्माके योग्य नमस्कारादि क्रिया कराते हैं, अथवा किंचित् धर्मका कोई अंग धारण करके बड़े धर्मात्मा कहलाते हैं, बड़े धर्मात्मा योग्य क्रिया कराते हैं धर्मका आश्रय करके अपनेको बड़ा मनवाते हैं, वे सब कुगुरू जानना; क्योंकि धर्मपद्धतिमें तो विषय-कषायादि छूटनेपर जैसे धर्मको धारण करे वैसा ही अपना पद मानना योग्य है। इस प्रकार कुलादि अपेक्षा गुरूपनेका निषेध वहाँ कितने ही तो कुल द्वारा अपनेको गुरू मानते हैं । उनमें कुछ ब्राह्मणादिक तो कहते हैं • हमारा कुल ही ऊँचा है, इसलिये हम सबके गुरू हैं। परन्तु कुलकी उच्चता तो धर्म साधनसे है। यदि उच्च कुलमें उत्पन्न होकर हीन आचरण करे तो उसे उच्च Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com -
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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