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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १५०] [मोक्षमार्गप्रकाशक फिर वे कहते हैं – सिद्धान्तमें केवलीके क्षुधादिक ग्यारह परीषह कहे हैं, इसलिये उनके क्षुधाका सद्भाव सम्भव है। तथा आहारादिक बिना उसकी उपशांतता कैसे होगी ? इसलिये उनके आहारादि मानते हैं। समाधान :- कर्मप्रकृतियोंका उदय मन्द-तीव्र भेद सहित होता है। वहाँ अति मन्द उदय होनेसे उस उदयजनित कार्यकी व्यक्तता भासित नहीं होती; इसलिये मुख्यरूपसे अभाव कहा जाता है, तारतम्यमें सदभाव कहा जाता है। जैसे नववें गुणस्थानमें वेदादिकका उदय मन्द है, वहाँ मैथनादि क्रिया व्यक्त नहीं है; इसलिये वहाँ ब्रह्मचर्य ही कहा है। तारतम्यमें मैथनादिकका सदभाव कहा जाता है। उसी प्रकार केवलीके असाताका उदय अतिमन्द है; क्योंकि एक-एक कांडकमें अनन्तवे भाग-अनुभाग रहते हैं, ऐसे बहुत अनुभागकांडकोंसे व गुणसंक्रमणादिसे सत्तामें असातावेदनीयका अनुभाग अत्यन्त मन्द हुआ है, उसके उदयमें ऐसी क्षुधा व्यक्त नहीं होती जो शरीरको क्षीण करे। और मोहके अभावसे क्षुधादिकजनित दुःख भी नहीं है; इसलिये क्षुधादिकका अभाव कहा जाता है और तारतम्यमें उसका सद्भाव कहा जाता है। तथा तने कहा-आहारादिक बिना उसकी उपशांतता कैसे होगी? परन्त रादिकसे उपशांत होने योग्य क्षधा लगे तो मन्द उदय कैसे रहा? देव. भोगभमियाँ आदिकके किंचित मन्द उदय होनेपर भी बहुत काल पश्चात किंचित आहार ग्रहण होता है तो इनके अतिमन्द उदय हुआ है, इसलिये इनके आहारका अभाव सम्भव है। फिर वह कहता है – देव, भोगभूमियोंका तो शरीर ही वैसा कि जिन्हें भूख थोड़ी और बहुत काल पश्चात् लगती है, उनका तो शरीर कर्मभूमिका औदारिक है; इसलिये इनका शरीर आहार बिना देशेन्यून कोटिपूर्व पर्यन्त उत्कृष्टरूपसे कैसे रहता है ? समाधान :- देवादिकका भी शरीर वैसा है; सो कर्मके ही निमित्तसे है। यहाँ केवलज्ञान होनेपर ऐसा ही कर्मका उदय हुआ, जिससे शरीर ऐसा हुआ कि उसको भूख प्रगट होती ही नहीं। जिस प्रकार केवलज्ञान होनेसे पूर्व केश, नख बढते थे, अब नहीं बढते; छाया होती थी अब नहीं होती; शरीरमें निगोद थी, उसका अभाव हुआ। बहुत प्रकारसे जैसे शरीरकी अवस्था अन्यथा हुई; उसी प्रकार आहार बिना भी शरीर जैसेका तैसा रहे, ऐसी भी अवस्था हुई। प्रत्यक्ष देखो, औरोंको जरा व्याप्त हो तब शरीर शिथिल हो जाता है, इनका आयु पर्यन्त शरीर शिथिल नहीं होता; इसलिये अन्य मनुष्योंकी और इनके शरीरकी समानता सम्भव नहीं है। तथा यदि तू कहेगा - देवादिकके आहार ही ऐसा है जिससे बहुत कालकी भूख मिट जाये, परन्तु इनकी भूख काहेसे मिटी और शरीर पुष्ट किस प्रकार रहा? तो सुन, Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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