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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १४० ] [मोक्षमार्गप्रकाशक अर्हन्नित्यथ जैनशासनरतः कर्मेति मीमांसकाः । सोऽयं वो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथः प्रभु' ।। १ ।। यहाँ छहों मतोंमें एक ईश्वर कहा वहाँ अरहंतदेवके भी ईश्वरपना प्रगट किया। यहाँ कोई कहे – जिस प्रकार यहाँ सर्व मतोंमें एक ईश्वर कहा, उसी प्रकार तुम भी मानो। उससे कहते हैं- तुमने यह कहा है, हमने तो नहीं कहा; इसलिये तुम्हारे मतमें अरहंतके ईश्वरपना सिद्ध हुआ। हमारे मतमें भी इसी प्रकार कहें तो हम भी शिवादिकको ईश्वर मानें। जैसे कोई व्यापारी सच्चे रत्न दिखाये, कोई झूठे रत्नदिखाये; वहाँ झूठे रत्नोंवालातो रत्नोंका समान मुल्य लेनेके अर्थ समान कहता है, सच्चे रत्नवाला कैसे समान माने ? उसी प्रकार जैनी सच्चे देवादिका निरूपण करता है, अन्यमती झूठे निरूपित करता है; वहाँ अन्यमती अपनी समान महिमाके अर्थ सर्वको समान कहता है, परन्तु जैनी कैसे माने ? तथा “रुद्रयामलतंत्र” में भवानी सहस्त्रनाममें ऐसा कहा है : कुण्डासना जगद्धात्री बुद्धमाता जिनेश्वरी । जिनमाता जिनेन्द्रा च शारदा हंसवाहिनी।। १ ।। यहाँ भवानीके नाम जिनेश्वरी इत्यादि कहे, इसलिये जिनका उत्तमपना प्रगट किया। तथा “गणेशपुराण" में ऐसा कहा है- “जैनं पशुपतं सांख्यं"। तथा “व्यासकृतसूत्र” में ऐसा कहा है : जैना एकस्मिन्नेव वस्तुनि उभयं प्ररूपयन्ति स्याद्वादिनः २ । इत्यादि उनके शास्त्रोंमें जैन निरूपण है, इसलिये जैनमतका प्राचीनपना भासित होता है। तथा “भागवत” के पंचमस्कन्धमें ऋषभावतारका वर्णन है। वहाँ उन्हें करुणामय १ यह हनुमन्नाटकके मंगलाचरणका तीसरा श्लोक है। इसमें बताया है कि जिसको शैव लोग शिव कहकर, वेदान्ती ब्रह्म कहकर, बौद्ध बुद्धदेव कहकर, नैयायिक कर्त्ता कहकर, जैनी अर्हन् कहकर मीमांसक कर्म कहकर उपासना करते हैं; वह त्रैलोक्यनाथ प्रभू तुम्हारे मनोरथोंको सफल करें। २ प्ररूपयन्ति स्याद्वादिनः इति खरडा प्रतौ पाठः । ३ भागवत स्कंध ५, अध्याय ५, २९ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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