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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार] [१३३ वहाँ संसारीके स्कन्धरूप वह दुःख है। वह पाँच प्रकार का है-विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार, रूप। वहाँ रूपादिकका जानना सो विज्ञान है; सुख-दुःखका अनुभवन करना सो वेदना है; सोते का जागना सो संज्ञा है; पढ़ा था उसे याद करना सो संस्कार है; रूपका धारण सो रूप है। यहाँ विज्ञानादिकको दुःख कहा सो मिथ्या है; दुःख तो काम-क्रोधादिक हैं, ज्ञान दुःख नहीं है। यह तो प्रत्यक्ष देखते हैं कि किसीके ज्ञान थोड़ा है और क्रोध-लोभादिक बहत हैं सो द:खी हैं; किसीके ज्ञान बहत है काम-क्रोधादि अल्प है व नहीं हैं सो सुखी है। इसलिये विज्ञानादिक दुःख नहीं है। तथा आयतन बारह कहे हैं – पाँच इन्द्रियाँ और उनके शब्दादिक पाँच विषय, एक मन और एक धर्मायतन। सो यह आयतन किस अर्थ कहे हैं ? सबको क्षणिक कहते हैं, तो इनका क्या प्रयोजन है ? तथा जिससे रागादिकके गण उत्पन्न होते हैं ऐसा आत्मा और आत्मीय है नाम जिसका सो समुदाय है। वहाँ अहंरूप आत्मा और ममरूप आत्मीय जानना, परन्तु क्षणिक माननेसे इनको भी कहनेका कुछ प्रयोजन नहीं है। तथा सर्व संस्कार क्षणिक हैं, ऐसी वासना सो मार्ग है। परन्तु बहुत काल स्थायी कितनी ही वस्तुएँ प्रत्यक्ष देखी जाती हैं। तू कहेगा - एक अवस्था नहीं रहती; सो यह हम भी मानते हैं। सूक्ष्म पर्याय क्षणस्थायी है। तथा उसी वस्तुका नाश मानते हैं; परन्तु यह तो होता दिखाई नहीं देता, हम कैसे माने ? तथा बाल-वृद्धादि अवस्थामें एक आत्माका अस्तित्व भासित होता है; यदि एक नहीं है तो पूर्व-उत्तर कार्यका एक कर्ता कैसे मानते यदि तू कहेगा-संस्कारसे है, तो संस्कार किसके हैं ? जिसके हैं वह नित्य है या क्षणिक है ? नित्य है तो सर्व क्षणिक कैसे कहते हैं ? क्षणिक है तो जिसका आधार ही क्षणिक है उस संस्कारकी परम्परा कैसे कहते हैं ? तथा सर्व क्षणिक हुआ तब आप भी क्षणिक हुआ। तू ऐसी वासनाको मार्ग कहता है, परन्तु इस मार्गके फलको आप तो प्राप्त १ दुःख संसारिणः स्कन्धास्ते च पञ्चप्रकीर्तिताः। विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारोरूपमेव च ।। ३७ ।। वि० वि० रूपं पंचेन्द्रियाण्यर्थाः पंचाविज्ञाप्तिरेव च । तव्दिज्ञानाश्रया रूपप्रसादाश्चक्षुरादयाः ।। ७ ।। वेदनानुभवः संज्ञा निमित्तोदग्रहणात्मिका । संस्कारस्कन्धश्चतुर्योन्ये संस्कारास्त इमे त्रय।। १५ ।। विज्ञानं प्रति विज्ञप्ति । अ० को० ( १ ] Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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