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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार ] [ १२९ वहाँ द्रव्य नौ प्रकार हैं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, मन। वहाँ पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के परमाणु भिन्न-भिन्न हैं; वे परमाणु नित्य हैं; उनसे कार्यरूप पृथ्वी आदि होते हैं सो अनित्य हैं । परन्तु ऐसा कहना प्रत्यक्षादिसे विरुद्ध है। ईंधनरूप पृथ्वी आदिके परमाणु अग्निरूप होते देखे जाते हैं, अग्नि के परमाणु राखरूप पृथ्वी होते देखे जाते हैं। जलके परमाणु मुक्ताफल (मोती) रूप पृथ्वी होते देखे जाते हैं। फिर यदि तू कहेगा- वे परमाणु चले जाते हैं, दूसरे ही परमाणु उनरूप होते हैं, सो प्रत्यक्षको असत्य ठहराता है। ऐसी कोई प्रबल युक्ति कह तो इसी प्रकार मानें, परन्तु केवल कहनेसे ही ऐसा ठहरता नहीं है। इसलिये सब परमाणुओंकी एक पुद्गलरूप मूर्तिक जात है, वह पृथ्वी आदि अनेक अवस्थारूप परिणमित होती है। - यह तथा इन पृथ्वी आदिका कहीं पृथक् शरीर ठहराते हैं, सो मिथ्या ही है; क्योंकि उसका कोई प्रमाण नहीं है । और पृथ्वी आदि तो परमाणुपिण्ड हैं; इनका शरीर अन्यत्र, अन्यत्र - ऐसा सम्भव नहीं है इसलिये यह मिथ्या है। तथा जहाँ पदार्थ अटके नहीं ऐसी जो पोल उसे आकाश कहते है, क्षण, पल आदिको काल कहते हैं; सो यह दोनों ही अवस्तु हैं, यह सत्तारूप पदार्थ नहीं हैं। पदार्थोंके क्षेत्र - परिणमनादिकका पूर्वापर विचार करनेके अर्थ इनकी कल्पना करते हैं। तथा दिशा कुछ है ही नहीं; आकाशमें खण्ड कल्पना द्वारा दिशा मानते हैं। तथा आत्मा दो प्रकार से कहते हैं; सो पहले निरूपण किया ही है। तथा मन कोई पृथक् पदार्थ नहीं हैं। भाव मन तो ज्ञानरूप है सो आत्माका स्वरूप है, परमाणुओंका पिण्ड है सो शरीर का अंग है । इस प्रकार यह द्रव्य कल्पित जानना । द्रव्यमन तथा चौबीस गुण कहते हैं स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग, परिणाम, पृथकत्व, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार, द्वेष, स्नेह, गुरुत्व, द्रव्यत्व । सो इनमें स्पर्शादिक गुण तो परमाणुओं में पाये जाते हैं; परन्तु पृथ्वीको गंन्धवती ही कहना, जलको शीत स्पर्शवान ही कहना इत्यादि मिथ्या है; क्योंकि किसी पृथ्वीमें गंधकी मुख्यता भासित नहीं होती, कोई जल उष्ण देखा जाता हैइत्यादि प्रत्यक्षादि से विरुद्ध है। तथा शब्दको आकाश का गुण कहते हैं, सो मिथ्या है; शब्द तो भींत आदिसे रुकता है इसलिये मूर्तिक है, और आकाश अमूर्तिक सर्वव्यापी है । भींतमें आकाश रहे और शब्दगुण प्रवेश न कर सके, यह कैसे बनेगा ? तथा संख्यादिक हैं सो वस्तुमें तो कुछ है नहीं, अन्य पदार्थकी अपेक्षा अन्य पदार्थकी हीनाधिकता जाननेको अपने ज्ञानमें संख्यादिककी कल्पना द्वारा विचार करते हैं। तथा बुद्धि आदि हैं सो आत्मा का परिणमन है, वहाँ बुद्धि नाम ज्ञानका है तो आत्माका गुण है ही, और मनका नाम है तो मन तो द्रव्योंमें - Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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