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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १२६] [मोक्षमार्गप्रकाशक तथा कर्म इन्द्रियाँ पाँच ही तो नहीं हैं, शरीरके सर्व अंग कार्यकारी हैं। तथा वर्णन तो सर्व जीवाश्रित है, मनुष्याश्रित ही तो नहीं है, इसलिये सूंड, पूंछ इत्यादि अंग भी कर्म इन्द्रियाँ हैं; पाँच हीकी संख्या किसलिये कहते हैं ? तथा स्पर्शादिक पाँच तन्मात्रा कहीं, सो रूपादि कुछ अलग वस्तु नहीं हैं, वे तो परमाणुओं से तन्मय गुण हैं; वे अलग कैसे उत्पन्न हुए? तथा अहंकार तो अमूर्तिक जीव का परिणाम है, इसलिये यह मूर्तिक गुण उससे कैसे उत्पन्न हुए माने ? तथा इन पाँचोंसे अग्नि आदि उत्पन्न कहते हैं सो प्रत्यक्ष झूठ है। रूपादिक और अग्नि आदिकके तो सहभूत गुण-गुणी सम्बन्ध है, कथन मात्र भिन्न है, वस्तुभेद नहीं है। किसी प्रकार कोई भिन्न होते भासित नहीं होते, कथनमात्र से भेद उत्पन्न करते हैं; इसलिये रूपादिसे अग्नि आदि उत्पन्न हुए कैसे कहें ? तथा कहनेमें भी गुणीमें गुण हैं, गुणसे गुणी उत्पन्न हुआ कैसे माने ? तथा इनसे भिन्न एक पुरुष कहते हैं, परन्तु उसका स्वरूप अव्यक्तव्य कहकर प्रत्युत्तर नहीं करते, तो कौन समझे ? कैसा है, कहाँ है, कैसे कर्ता-हर्ता है, सो बतला। जो बतलायेगा उसीमें विचार करनेसे अन्यथापना भासित होगा। इस प्रकार सांख्यमत द्वारा कल्पित तत्त्व मिथ्या जानना। तथा पुरुषको प्रकृतिसे भिन्न जाननेका नाम मोक्षमार्ग कहते हैं; सो प्रथम तो प्रकृति और पुरुष कोई है ही नहीं तथा मात्र जाननेहीसे तो सिद्धि होती नहीं है; जानकर रागादिक मिटाने पर सिद्धि होती है। परन्तु इस प्रकार जाननेसे कुछ रागादिक नहीं घटते। प्रकृतिका कर्तव्य माने, आप अकर्ता रहे; तो किसलिये आप रागादिक कम करेगा? इसलिये यह मोक्षमार्ग नहीं है। तथा प्रकृति- पुरुषका भिन्न होना उसे मोक्ष कहते हैं। सो पच्चीस तत्त्वोंमें चौबीस तत्त्व तो प्रकृति सम्बन्धी कहे , एक पुरुष भिन्न कहा; सो वे तो भिन्न हैं ही; और कोई जीव पदार्थ पच्चीस तत्त्वोंमें कहा ही नहीं। तथा पुरुषहीको प्रकृतिका संयोग होनेपर जीव संज्ञा होती है तो पुरुष न्यारे-न्यारे प्रकृति सहित हैं, पश्चात् साधन द्वारा कोई पुरुष प्रकृति रहित होता है-ऐसा सिद्ध हुआ, एक पुरुष न ठहरा। तथा प्रकृति पुरुषकी भूल है या किसी व्यंतरीवत् भिन्न ही है, जो जीवको आ लगती है ? यदि उसकी भूल है तो प्रकृतिसे इन्द्रियादिक व स्पर्शादिक तत्त्व उत्पन्न हुए कैसे माने ? और अलग है तो वह भी एक वस्तु है, सर्व कर्तव्य उसका ठहरा। पुरुषका कुछ कर्तव्य ही नहीं रहा, तब किसलिये उपदेश देते हैं ? इस प्रकार यह मोक्ष मानना मिथ्या है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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