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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार] [१११ कैसे हुए? हम कहेंगे परमब्रह्म कैसे हुआ ? तू कहेगा - इनकी रचना ऐसी किसने की ? हम कहेंगे - परमब्रह्म को ऐसा किसने बनाया ? तू कहेगा - परमब्रह्म स्वयंसिद्ध है; हम कहेंगे - जीवादिक व स्वर्गादिक स्वयंसिद्ध है। तू कहेगा - इनकी और परमब्रह्म की समानता कैसे सम्भव है ? तो सम्भावना में दूषण बतला। लोकको नवीन उत्पन्न करना, उसका नाश करना, उसमें तो हमने अनेक दोष दिखाये। लोकको अनादिनिधन मानने से क्या दोष है ? सो तू बतला। यदि तू परमब्रह्म मानता है सो अलग कोई है ही नहीं; इस संसार में जीव हैं, वे ही यथार्थ ज्ञान से मोक्ष मार्ग साधने से सर्वज्ञ वीतराग होते हैं। यहाँ प्रश्न है कि - तुम तो न्यारे-न्यारे जीव अनादिनिधन कहते हो; मुक्त होने के पश्चात् तो निराकार होते हैं, वहाँ न्यारे-न्यारे कैसे सम्भव है ? समाधान :- मुक्त होने के पश्चात् सर्वज्ञको दिखते है या नहीं दिखते ? यदि दिखते हैं तो कुछ आकार दिखता ही होगा। बिना आकार देखे क्या देखा और नहीं दिखते तो या तो वस्तु ही नहीं है या सर्वज्ञ नहीं है। इसलिये इन्द्रियज्ञानगम्य आकार नहीं है उस अपेक्षा निराकार हैं और सर्वज्ञ ज्ञानगम्य हैं इसलिये आकारवान हैं। जब आकारवान ठहरे तब अलग-अलग हो तो क्या दोष लगेगा? और यदि तू जाति अपेक्षा एक कहे तो हम भी मानते हैं। जैसे गेहूँ भिन्न-भिन्न हैं उनकी जाति एक है; इस प्रकार एक मानें तो कुछ दोष नहीं है। इस प्रकार यर्थाथ श्रद्धान से लोक में सर्व पदार्थ अकृत्रिम भिन्न-भिन्न अनादिनिधन मानना। यदि वृथा ही भ्रम से सच-झूठका निर्णय न करे तो तू जाने, अपने श्रद्धानका फल तू पायेगा। ब्रह्मसे कुलप्रवृत्ति आदि का प्रतिषेध तथा वे ही ब्रह्मसे पुत्र-पौत्रादि द्वारा कुलप्रवृत्ति कहते हैं। और कुलोंमें राक्षस, मनुष्य , देव, तिर्यन्चोंके परस्पर प्रसूति भेद बतलाते हैं। वहाँ देव से मनुष्य व मनुष्य से देव व तर्यन्चसे मनुष्य इत्यादि - किसी माता किसी पिता से किसी पुत्र-पुत्रीका उत्पन्न होना बतलाते हैं सो कैसे संभव है ? तथा मनहीसे व पवनादिसे व वीर्य सूंघने आदिसे प्रसूतिका होना बतलाते हैं सो प्रत्यक्षविरुद्ध भासित होता है। ऐसा होनेसे पुत्र-पौत्रादिक का नियम कैसे रहा ? तथा बड़ेबड़े महन्तोंको अन्य-अन्य माता-पिता से हुआ कहते हैं; सो महन्त पुरुष कुशीलवान मातापिताके कैसे उत्पन्न होंगे? यह तो लोकमें गाली है। फिर ऐसा कहकर उनको महंतता किसलिये कहते हैं ? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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