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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १०४] [ मोक्षमार्गप्रकाशक लीला करता है तो अन्य जीवोंको इन कार्योंसे छुड़ाकर मुक्त करनेका उपदेश किसलिये देते हैं ? क्षमा, सन्तोष, शील, संयमादिका उपदेश सर्व झूठा हुआ। फिर वह कहता है कि परमेश्वरको तो कुछ प्रयोजन नहीं है। लोकरीतिकी प्रवृत्तिके अर्थ वह भक्तोंकी रक्षा, दुष्टोंका निग्रह- उसके अर्थ अवतार धारण* करता है। तो इससे पूछते हैं - प्रयोजन बिना चींटी भी कार्य नहीं करती, परमेश्वर किसलिये करेगा ? तथा तूने प्रयोजन भी कहा कि - लोकरीतिकी प्रवृत्तिके अर्थ करता है। सो जैसे कोई पुरुष आप कुचेष्टासे अपने पुत्रोंको सिखाये और वे उस चेष्टारूप प्रवर्ते तब उनको मारे ऐसे पिताको भला कैसे कहेंगे? उसी प्रकार ब्रह्मादिक आप काम-क्रोधरूप चेष्टासे अपने उत्पन्न किये लोगों को प्रवृत्ति करायें और वे लोग उस प्रकार प्रवृत्ति करें तब उन्हें नरकादि में डाले। इन्हीं भावोंका फल शास्त्रमें नरकादि लिखा है सो ऐसे प्रभुको भला कैसे माने ? तथा तूने यह प्रयोजन कहा कि भक्तोंकी रक्षा, दुष्टोंका निग्रह करना। सो भक्तोंको दुःखदायक जो दुष्ट हुए, वे परमेश्वरकी इच्छासे हुए या बिना इच्छासे हुए ? यदि इच्छासे हुए तो जैसे कोई अपने सेवकको आपही किसीसे कहकर मराये और फिर उस मारनेवालेको आप मारे. तो ऐसे स्वामीको भला कैसे कहेंगे? उसी प्रकार जो अपने भक्तको आपही इच्छासे दुष्टों द्वारा पीड़ित कराये और फिर उन दुष्टोंको आप अवतार धारण करके मारे, तो ऐसे ईश्वरको भला कैसे माना जाये ? यदि तू कहेगा कि बिना इच्छा दुष्ट हुए – तो या तो परमेश्वरको ऐसा आगामी ज्ञान नहीं होगा कि यह दुष्ट मेरे भक्तोंको दुःख देंगे, या पहले ऐसी शक्ति नहीं होगी कि इनको ऐसा न होने दे। तथा उससे पूछते हैं कि यदि ऐसे कार्यके अर्थ अवतार धारण किया, सो क्या बिना अवतार धारण किये शक्ति थी या नहीं? यदि थी तो अवतार क्यों धारण किया ? और नहीं थी तो बादमें सामर्थ्य होनेका कारण क्या हुआ ? तब वह कहता है - ऐसा किये बिना परमेश्वरकी महिमा प्रगट कैसे होगी ? उससे पूछते हैं कि - अपनी महिमा के अर्थ अपने अनुचरोंका पालन करे, प्रतिपक्षियोंका निग्रह करे, वही राग-द्वेष है। वह राग-द्वेष तो संसारी जीवका लक्षण है। यदि परमेश्वरके भी राग-द्वेष पाये जाते हैं तो अन्य जीवोंको राग-द्वेष छोड़कर समताभाव करनेका उपदेश किसलिये दें ? तथा राग-द्वेषके अनुसार कार्य करनेका विचार किया, सो कार्य थोड़े या बहुत काल लगे बिना होता नहीं है, तो उतने काल आकुलता भी परमेश्वरको होती होगी। * परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् धर्मसंस्थापनार्थाय स्वभवामि युगे युगे ।। ८।। (गीता ४-८) Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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