SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ९४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक यह उनमें ममत्व करता है और उनके अर्थ नरकादिकमें गमनके कारणभूत नानाप्रकारके पाप उत्पन्न करता है। धनादिक सामग्री किसीकी किसीके होती देखी जाती है, वह उन्हें अपनी मानता है। तथा शरीरकी अवस्था और बाह्य सामग्री स्वयमेव उत्पन्न होती तथा विनष्ट होती दिखायी देती है, यह वृथा स्वयं कर्त्ता होता है। वहाँ जो कार्य अपने मनोरथके अनुसार होता है उसे तो कहता है ' मैंने किया '; और अन्यथा होतो कहता है 'मैं क्या करूँ?'; ऐसा ही होना था अथवा ऐसा क्यों हुआ ? ऐसा मानता है। परन्तु या तो सर्वका कर्त्ता ही होना था या अकर्त्ता रहना था, सो विचार नहीं है। तथा मरण अवश्य होगा ऐसा जानता है, परन्तु मरणका निश्चय करके कुछ कर्त्तव्य नहीं करता; इस पर्याय सम्बन्धी ही यत्न करता है। तथा मरण का निश्चय करके कभी तो कहता है कि मैं मरूँगा और शरीर को जला देंगे। कभी कहता है - मुझे जला देंगे। कभी कहता है यश रहा तो हम जीवित ही हैं। कभी कहता है ही जीऊँगा । पुत्रादिक रहेंगे तो मैं इस प्रकार पागल की भाँति बकता है, कुछ सावधानी नहीं है। - - - - — तथा अपने को परलोकमें जाना है यह प्रत्यक्ष जानता है; उसके तो इष्ट-अनिष्टका कुछ भी उपाय नहीं करता और यहाँ पुत्र, पौत्र आदि मेरी सन्ततिमें बहुत काल तक इष्ट बना रहे अनिष्ट न हो; ऐसे अनेक उपाय करता है किसी के परलोक जाने के बाद इस लोक की सामग्री द्वारा उपकार हुआ देखा नहीं है, परन्तु इसको परलोक होने का निश्चय होने पर भी इस लोक की सामग्री का ही पालन रहता है। तथा विषय-कषायोंकी परिणतिसे तथा हिंसादि कार्यों द्वारा स्वयं दुःखी होता है, खेदखिन्न होता है, दूसरोंका शत्रु होता है, इस लोकमें निंद्य होता है, परलोकमें बुरा होता है ऐसा स्वयं प्रत्यक्ष जानता है तथापि उन्हीं में प्रवर्तता है। – इत्यादि अनेक प्रकार से प्रत्यक्ष भासित हो उसका भी अन्यथा श्रद्धान करता है, जानता है, आचरण करता है; सो यह मोह का महात्म्य है I इस प्रकार यह जीव अनादिसे मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप परिणमित हो रहा है। इसी परिणमन से संसारमें अनेक प्रकारका दुःख उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका सम्बन्ध पाया जाता है। यही भाव दुःखोंके बीज हैं अन्य कोई नहीं । इसलिये हे भव्य! यदि दुःखोंसे मुक्त होना चाहता है तो इन मिथ्यादर्शनादिक विभावभावोंका अभाव करना ही कार्य है; इस कार्य के करने से तेरा परम कल्याण होगा। इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्रके निरूपणरूप चौथा अधिकार समाप्त हुआ ।।४।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy