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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चौथा अधिकार] [९१ हैं नहीं और यह इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष करता है, इसलिये इस परिणमनको मिथ्या कहा है। मिथ्यारूप जो परिणमन, उसका नाम मिथ्याचारित्र है। राग-द्वेषका विधान व विस्तार अब, इस जीवके राग-द्वेष होते हैं, उनका विधान और विस्तार बतलाते हैं : प्रथम तो इस जीवको पयार्यमें अहंबुद्धि है सो अपने को और शरीरको एक जानकर प्रवर्तता है। तथा इस शरीरमें अपनेको सुहाये ऐसी इष्ट अवस्था होती है उसमें राग करता है; अपनेको न सुहाये ऐसी अनिष्ट अवस्था होती है उसमें द्वेष करता है। तथा शरीर की इष्ट अवस्था के कारणभूत बाह्य पदार्थों में तो राग करता है और उसके घातकों में द्वेष करता है। तथा शरीरकी अनिष्ट अवस्थाके कारणभूत बाह्य पदार्थों में तो द्वेष करता है और उनके घातकों में राग करता है। तथा इनमें जिन बाह्य पदार्थों से राग करता है उनके कारणभूत अन्य पदार्थों में राग करता है और उनके घातकों में द्वेष करता है। तथा जिन बाह्य पदार्थों से द्वेष करता है उनके कारणभूत अन्य पदार्थों में द्वेष करता है और उनके घातकोंमें राग करता है। तथा इनमें भी जिनसे राग करता है उनके कारण व घातक अन्य र्थों में राग-द्वेष करता है। तथा जिनसे द्वेष है उनके कारण व घातक अन्य पदार्थों में द्वेष व राग करता है। इसी प्रकार राग-द्वेषकी परम्परा प्रवर्तती है। तथा कितने ही बाह्य पदार्थ शरीर की अवस्था को कारण नहीं हैं उनमें भी राग-द्वेष करता है। जैसे - गाय आदिको बच्चोंसे कुछ शरीर का इष्ट नहीं होता तथापि वहाँ राग करते हैं और कुत्ते आदिको बिल्ली आदिसे कुछ शरीर का अनिष्ट नहीं होता तथापि वहाँ द्वेष करते हैं। तथा कितने ही वर्ण, गंध, शब्दादिके अवलोकनादिकसे शरीर का इष्ट नहीं होता तथापि उनमें राग करता है। कितने ही वर्णादिकके अवलोकनादिकसे शरीर को अनिष्ट नहीं होता तथापि उनमें द्वेष करता है। - इस प्रकार भिन्न बाह्य पदार्थों में राग-द्वेष होता है। तथा इनमें भी जिनसे राग करता है उनके कारण और घातक अन्य पदार्थों में राग व द्वेष करता है। और जिनसे द्वेष करता है उनके कारण और घातक अन्य पदार्थों में द्वेष व राग करता है। इस प्रकार यहाँ भी राग-द्वेषकी परम्परा प्रवर्तती है। यहाँ प्रश्न है कि - अन्य पदार्थों में तो राग-द्वेष करने का प्रयोजन जाना, परन्तु प्रथम ही मूलभूत शरीर की अवस्था में तथा जो शरीर की अवस्था को कारण नहीं है उन पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट माननेका प्रयोजन क्या है ? समाधान :- जो प्रथम मूलभूत शरीरकी अवस्था आदिक हैं उनमें भी प्रयोजन विचार कर राग-द्वेष करे तो मिथ्याचारित्र नाम क्यों पाये ? उनमें बिना ही प्रयोजन राग-द्वेष करता Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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