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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ५८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक अनुभाग घटे तब इच्छा तो मिट जाये और शक्ति बढ़ जाये, तब वह दु:ख दूर होकर निराकुल सुख उत्पन्न होता है। इसलिये सम्यग्दर्शनादि ही सच्चा उपाय है। वेदनीयकर्मके उदयसे होनेवाला दुःख और उससे निवृत्ति तथा वेदनीयके उदयसे दुःख-सुखके कारणोंका संयोग होता है। वहाँ कई तो शरीरमें ही अवस्थाएँ होती हैं, कई शरीरकी अवस्थाको निमित्तभूत बाह्य संयोग होते हैं, और कई बाह्य ही वस्तुओंके संयोग होते हैं। वहाँ असाताके उदयसे शरीरमें तो क्षुधा, तृषा, उच्छ्वास, पीड़ा, रोग इत्यादि होते हैं; तथा शरीरकी अनिष्ट अवस्थाको निमित्तभूत बाह्य अति शीत, उष्ण, पवन, बंधनादिकका संयोग होता है; तथा बाह्य शत्रु, कुपुत्रादिक व कुवर्णादिक सहित स्कन्धोंका संयोग होता है सो मोह द्वारा इनमें अनिष्ट बुद्धि होती है। जब इनका उदय हो तब मोहका उदय ऐसा ही आवे जिससे परिणामोंमें महा व्याकुल होकर इन्हें दूर करना चाहे, और जब तक वे दूर न हों तब तक दुःखी रहता है। इनके होने से तो सभी दुःख मानते हैं। — तथा साताके उदयसे शरीरमें आरोग्यवानपना, बलवानपना इत्यादि होते हैं; और शरीरकी इष्ट अवस्थाको निमित्तभूत बाह्य खान-पानादिक तथा सुहावने पवनादिकका संयोग होता है; तथा बाह्य मित्र, सुपुत्र, स्त्री, किंकर, हाथी, घोड़ा, धन, धान्य, मकान, वस्त्रादिकका संयोग होता है और मोह द्वारा इनमें इष्टबुद्धि होती है। जब इनका उदय हो तब मोहका उदय ऐसा ही आये कि जिससे परिणामोंमें सुख माने, उनकी रक्षा चाहे, जब तक रहें तब तक सुख माने । सो यह सुख मानना ऐसा है जैसे कोई अनेक रोगों से बहुत पीड़ित होरहा था, उसके किसी उपचारसे किसी एक रोगकी कुछ कालके लिये कुछ उपशान्तता हुई, तब वह पूर्व अवस्थाकी अपेक्षा अपनेको सुखी कहता है; परमार्थसे सुख नहीं। उस प्रकार यह जीव अपने दुःखोंसे बहुत पीड़ित हो रहा था, उसके किसी प्रकारसे किसी एक दुःखकी कुछ कालके लिये उपशान्तता हुई, तब वह पूर्व अवस्थाकी अपेक्षा अपनेको सुखी कहता है, परमार्थसे सुख है नहीं । तथा इसके असाताका उदय होनेपर जो हो उससे तो दुःख भासित होता है, इसलिये उसे दूर करनेका उपाय करता है; और साताके उदय होनेपर जो हो उससे सुख भासित होता है, इसलिये उसे रखनेका उपाय करता है परन्तु यह उपाय झूठा है । — 1 प्रथम तो इसके उपायके आधीन नहीं है, वेदनीय कर्मके उदयके आधीन असाताको मिटाने और साताको प्राप्त करनेके अर्थ तो सभीका यत्न रहता है; परन्तु किसीको थोड़ा यत्न करने पर भी अथवा न करने पर भी सिद्धि हो जाये, किसीको बहुत Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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