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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है __व्याख्या :- यहाँ इस जीव के इन्द्रिय-विषयों से सम्बन्ध रखने वाले सारे ज्ञान को 'पौद्गलिक' बतलाया है और जो ज्ञान इन्द्रिय-विषयों की सहायता से रहित अतीन्द्रिय है वह आत्मीय है-आत्मा का निजरूप है। अतः इन्द्रियजन्य पराधीन ज्ञान वास्तव में अपना नहीं और इसलिये वह त्याज्य है।।१३१।। (श्री योगसार, श्री अमितगति आचार्य , चूलिकाधिकार, गाथा ७६ ) * प्रथम, श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभाव आत्मा का निश्चय करके, और फिर आत्मा की प्रगट प्रसिद्धि के लिये, पर पदार्थ की प्रसिद्धि की कारणभूत इन्द्रियों द्वारा और मन के द्वारा प्रवर्त्तमान बुद्धियों को मर्यादा में लेकर जिसने मतिज्ञान-तत्व को ( मतिज्ञान के स्वरूप को) आत्म सन्मुख किया है ऐसा, तथा जो नानाप्रकार के नयपक्षों के आलम्बन से होने वाले अनेक विकल्पों के द्वारा आकुलता उत्पन्न करने वाली श्रुत ज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान-तत्व को भी आत्म सन्मुख करता हुआ, अत्यंत विकल्प रहित होकर, तत्काल निजरस से ही प्रगट होता हुआ, आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनाकुल , केवल एक , सम्पूर्ण ही विश्व पर मानों तैरता हो ऐसे अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त विज्ञानधन परमात्मारूप समयसार का जब आत्मा अनुभव करता है तब उसी समय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है ( अथात् उसकी श्रद्धा की जाती है) और ज्ञात होता है इसलिये समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।।१३२।। ( श्री समयसार जी गाथा १४४ की टीका में से) * जो समस्त वस्तु झलके हैं सो हमारा ज्ञान स्वभाव, मैं अवलोकन करूँ हूँ, हमारे ज्ञान के बाह्य किसी वस्तु को मैं नाहीं देखू हूँ, नाहीं जानूं हूँ। *इन्द्रियज्ञान भव का हेतु है* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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