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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है आने वाला सर्व परद्रव्यों से भिन्न, अपनी पर्यायों में एकरूप निश्चल, अपने गुणों में एकरूप, परनिमित्त से उत्पन्न हुए भावों से भिन्न अपने स्वरूप का अनुभव, ज्ञान का अनुभव है; और यह अनुभवन भावश्रुतज्ञान रूप जिनशासन का अनुभव है। शुद्धनय से इसमें कोई भेद नहीं है।।६५।। (श्री समयसार जी, गाथा १५ का भावार्थ, पं. श्री जयचंदजी छावड़ा) * अन्तरंग में अभ्यास करे-देखे तो यह आत्मा अपने अनुभवन से ही जानने योग्य जिसकी प्रकट महिमा है ऐसा व्यक्त ( अनुभवगोचर) निश्चल, शाश्वत, नित्य कर्मकलंक-कर्दम से रहित स्वयं ऐसा स्तुति करने योग्य देव विराजमान है।।६६ ।। (श्री समयसार जी, कलश-१२ के श्लोकार्थ में से श्री अमृतचंद्राचार्य) * शुद्धनय की दृष्टि से देखा जाये तो सर्व कर्मो से रहित चैतन्यमात्रदेव अविनाशी आत्मा अंतरंग में स्वयं विराजमान हैं। यह प्राणी-पर्यायबुद्धि बहिरात्मा-उसे बाहर ढूंढता है, यह महा अज्ञान है।।६७।। (श्री समयसार जी, गाथा–१२ का भावार्थ, श्री जयचन्द जी छावड़ा) * मोक्षार्थी पुरुष को पहले तो आत्मा को जानना चाहिये, और फिर उसी का श्रद्धान करना चाहिये कि 'यही आत्मा है, इसका आचरण करने से अवश्य कर्मो से छूटा जा सकेगा' और फिर उसी का अनुचरण करना चाहिये-अनुभव के द्वारा उसमें लीन होना चाहिए; क्योंकि साध्य जो निष्कर्म अवस्थारूप अभेद-शुद्धस्वरूप उसकी सिद्धि की इसी प्रकार उपपत्ति है, अन्यथा अनुपपत्ति है।।६८ ।। (श्री समयसार जी, गाथा १७–१८ का टीका में से श्री अमृतचंद्राचार्य) २८ *सम्यग्ज्ञान का लक्षण-परलक्ष अभावत् * Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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