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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है दूसरी तरफ है। तो इधर लाओ-ऐसा कहने में आता है। असल में तो मैं खुद ही उपयोग स्वरूप हूँ। उपयोग कहीं गया ही नहीं। ऐसी दृष्टि होने पर ( पर्याय अपेक्षा से) उपयोग स्व सन्मुख आता ही है।।५६८ ।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ४९, बोल २२३ ) * उपयोग अपने से बाहर निकले तो जम का दूत ही आया ऐसा देखो! ( बाहर में) चाहे भगवान भी भले हों। ( उपयोग बाहर जावे) उसमें अपना मरण हो रहा है। बाहर के पदार्थ से तो अपना कोई सम्बन्ध ही नहीं-फिर उपयोग को बाहर में लम्बाना क्यों ? ।।५६९ ।।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ५२, बोल २४३) * “शुद्ध बुद्ध चैतन्य घन, स्वयं ज्योति सुख धाम" उसमें पर्याप्त बात बतला दिया है फिर जो सब बात आती है वह तो परलक्षी ज्ञान की निर्मलता के लिए सहज हो तो हो।।५७० ।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश , भाग ३, पृष्ठ ६०, बोल २८१) * अपने को ज्यादा ज्ञान का लक्ष नहीं है (क्षयोपशम बढ़ाने की चाहना नहीं है)। सुख पीने का भाव रहता है। केवलज्ञान पड़ा है, तो उसके उघड़ने पर ज्ञान तो सब हो जायेगा।।५७१।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ७१, बोल ३४३) * ज्ञान के उघाड़ में रस लगता है, तो तत्वरसिक जन कहते हैं कि हमको तेरी बोली में रस नहीं आता, हमको तेरी बोली काग पक्षी जैसी ( अप्रिय) लगती है।।५७२।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ७७, बोल ३७२ ) * (बिमारी की व्याख्या ऐसी कही) उपयोग बाहर ही बाहर में घूमता २६२ * इन्द्रियज्ञान चंचल है Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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