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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है प्रथम तो त्रिकाली में पसर जाने का है; ओ ही सब से प्रथम करना है।।५६४।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश , भाग ३, पृष्ठ ३०, बोल १३०) * थोड़ा यह तो कर लेऊँ, यह तो जान लेऊँ, सुन तो लेऊँ , ये सब अटकने का रास्ता है। (अपने) असंख्य प्रदेश में प्रसरकर पूरा का पूरा व्यापक होकर स्थिर रहो ना! सुख-शान्ति बढ़ती जायेगी। विकल्पादि टूटते जायेंगे।।५६५ ।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ३२, बोल १४०) * अपने को तो सुख पीने की अधिकता रहती है। जानने की नहीं। और खरेखर तो विकल्प से जानते हैं, सो तो सच्चा जानना ही नहीं है। अन्दर में अभेदता से जो सहज जानना होता है, वही सच्चा ज्ञान है। परसत्ता अवलम्बी ज्ञान तो हेय कहा है ना! और शिवभूति मुनि विशेष जानते नहीं थे, फिर भी अन्दर में सुख पीते-पीते उनको केवलज्ञान हो गया।।५६६ ।।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ३४, बोल १४६ ) * ( अज्ञानी जीव को) ज्ञान का थोड़ा क्षयोपशम होवे और थोड़ा विकास भी होता जावे, तो उसमें ही रुक जाता है। “ मैं थोड़ा समझदार तो हूँ-और शान्ति भी थोड़ी पहले से अपेक्षित बढ़ती जाती है-तो मैं आगे बढ़ता जाता हूँ” ऐसा संतोष मानकर अटक जाता है।।५६७।। (श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ ४२, बोल १८९) * प्रश्न : उपयोग को स्वयं की ओर ढालने का ही एक कार्य करने का है ना? उत्तर : पर्याय की अपेक्षा से तो ऐसा ही कहा जावे। क्योंकि उपयोग २६१ *इन्द्रियज्ञान भव का हेतु है Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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