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________________ मोक्ष-मार्ग १९.८ (वह नहीं जानता कि-) परद्रव्य मे प्रवृत्त शुभ-परिणाम पुण्य है और अशुभ-परिणाम पाप है। (धर्म) अनन्यगत अर्थात् स्व-द्रव्य मे प्रवृत्त परिणाम है जो यथासमय दुखों के क्षय का कारण होता है। १९९. जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता है । पुण्य सुगति का हेतु (अवश्य) है, किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है। २००. अशुभ-कर्म को कुशील और शुभ-कर्म को सुशील जानो। किन्तु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो ससार में प्रविष्ट कराता है ? २०१. बेडी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों ही बेड़ियाँ बाँधती है। इसी प्रकार जीव को उसके शुभ-अशुभ कर्म बाँधते है। २०२ अत (परमार्थत ) दोनों ही प्रकार के कर्मो को कुशील जानकर उनके साथ न राग करना चाहिए और न उनका ससर्ग। क्योकि कुशील (को) के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट होती है । २०३ (तथापि-) व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है । इनके न करने पर नरकादि के दु.ख उठाना ठीक नहीं है। क्योकि कष्ट सहते हुए धूप मे खड़े रहने की अपेक्षा छाया मे खड़े रहना कही अच्छा है। (इसी न्याय से लोक मे पुण्य की सर्वथा उपेक्षा उचित नही।) २०४. (इसमे सन्देह नही कि) शुभभाव से विद्याधरों, देवों तथा मनुष्यों की करांजलि-बद्ध स्तुतियों से स्तुत्य चक्रवर्ती सम्राट की विपुल राज्यलक्ष्मी (तक) उपलब्ध हो सकती है, किन्तु भव्य जीवों के द्वारा आदरणीय सम्यक्-सम्बोधि प्राप्त नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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