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________________ सभी आम्नायों के प्रमुख जैन आचार्य तथा मुनिगण काल से परे, वस्तुस्वभाव के आधार पर आत्मा की सत्ता स्वीकार करने पर समाज में विषमता, वर्गभेद, वर्णभेद आदि का स्थान ही नही रह जाता। ऐसी स्थिति में, व्यवहार-जगत मे महावीर जमा वीतराग तत्त्वदर्शी यही कह सकता है कि समभाव ही अहिमा है, मन मे ममत्व का भाव न होना ही अपरिग्रह है। मत्य शास्त्र मे नही अनुभव मे है, ब्रह्म मे चर्या करना ही ब्रह्मचर्य है। कर्म से ही मनुष्य ब्राह्माण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और कर्म से ही शूद्र। चारित्रहीन व्यक्ति को सम्प्रदाय और वेश, धन और बल, सत्ता और ऐश्वर्य, ज्ञान और पोथियाँ त्राण नही देते। देवी-देवताओ या प्रकृति की विभिन्न शक्तियो को प्रसन्न करने के लिए तरह-तरह के कर्मकाडी अनठानो से भी मानव को त्राण नहीं मिल सकता। आत्म-प्रतीति, आत्मज्ञान और आत्म-लीनता--निजानन्द रसलीनता ही मनप्य को मक्ति दिलाती है। निश्चयत यही सम्यवत्व है। महावीर सही अर्थो मे निर्ग्रन्थ थे--ग्रन्थ और ग्रन्थियो को भेदकर ही वे देह मे भी विदेह थे। उन्हीकी निरक्षरी सर्वबोधगम्य पीयूषवर्षिणी वाणी की अनुगूंज वातावरण मे है। श्रावकाचार साधना शक्त्यनुकल ही हो सकती है। इसीलिए जैन आचार-मार्ग को श्रावकाचार और श्रमणाचार इन दो विभागो मे विभाजित किया गया है। श्रावको का आचार श्रमणो की अपेक्षा सरल होता है, क्योकि वे गह-त्यागी नहीं होते और समार के व्यापारो मे लगे रहते है। किन्तु श्रावक अपने आचार के प्रति निरन्तर सचेत रहता है और उसका लक्ष्य थमणधर्म की ओर बढने का होता है। जब श्रावक की आत्मशक्ति बढ जाती है और रागद्वेषादि विकारो पर, क्रोधादि कषायो पर उसका नियत्रण बढने लगता है, तब वह धीरे-धीरे एक-एक श्रेणी बढकर श्रमण-पथ पर विचरने लगता है। वारह व्रतो का धीरे-धीरे निरतिचार पालन करते हुए और एकादश श्रेणियो को उत्तीर्ण कर श्रावक श्रमणदशा में पहुंचता है। वस्तुत देखा जाय तो श्रावकधर्म श्रमणधर्म का आधार या पूरक है। यह उल्लेखनीय बात है कि जैनधर्म का सम्पूर्ण आचार आत्मलक्षी है, और श्रावक तथा श्रमण के लिए व्यवस्थित, क्रमिक विकासोन्मुख, ऊर्ध्वगामी सहिता उपलब्ध है। केवल नीति-उपदेश - सोलह - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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