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________________ गणों का समग्र अनुभव एक साथ कर ही नही पाना, अभिव्यक्ति तो दूर की बात है। भापा की असमर्थता और शब्दार्थ की सीमा जहाँ-तहाँ झगडे और विवाद पैदा करती है। मनाय का अह उसमे और वृद्धि करता है । लेकिन अनेकान्त समन्वय का, विरोध-परिहास का मार्ग प्रदरत करता है। सबके कथन म सत्याग होता है और उन सत्यागो को समझकर विवाद को मरलता से दूर किया जा सकता है। जिसका अपना कोई हट या कवाग्रह नहीं होता, वही अनेकान्त के द्वारा गस्थियो को भलीभाँति सुलझा सकता है । यो प्रत्येक मनु प्य अनेकान्त मे जीता है, परन्तु उसके ध्यान मे नहीं आ रहा है कि वह ज्योति कहाँ है जिससे वह प्रकाशित है । आँखों पर जब तक आग्रह की पट्टी बंधी रहती है, तब तक वस्तुस्वरूप का स्ही दर्शन नही हो सकता। अनेकान्त वस्तु या पदार्थ की स्वतत्र सत्ता का उद्घोष करता है। विचार जगत् मे अहिसा का मर्तरूप अनेकान्त है। जो अहिसक होगा वह अनेकान्ती होगा और जो अनेकान्ती होगा, वह अहिसक होगा। आज जैनधर्म का जो कुछ स्वरूप उपलब्ध है, वह महावीर की देशना से अनुप्राणित है। आज उन्हीका धर्मशासन चल रहा है। महावीर दर्शन और धर्म के समन्वयकार थे। ज्ञान, दर्शन एवं आचरण का समन्वय ही मनाय को दुख-मक्ति की ओर ले जाता है। ज्ञानहीन कर्म और कर्महीन ज्ञान--दोनो व्यर्थ है। ज्ञात सत्य का आचरण और आचरित सत्य का जान--दोनो एक साथ होकर ही सार्थक होते है । वस्तु स्वभाव धर्म __जैन-दर्शन की यह देन बड़ी महत्त्वपूर्ण है कि वस्तु का स्वभाव ही धर्म है--वत्थु महावो धम्मो। सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभावानुसार प्रवर्तमान है। उसका अस्तित्व उत्पत्ति, स्थिति और विनाश से यवत है। पदार्थ अपने स्वभाव से च्युत नही होता--वह जड हो या चेतन । सत्ता के रूप मे वह सदैव स्थित है, पर्याय की अपेक्षा वह निरन्तर परिवर्तनशील है । इमी त्रिपदी पर सम्पूर्ण जनदर्शन का प्रासाद खड़ा है। इसी त्रिपदी के आधार पर सम्पूर्ण लोक-व्यवस्था का प्रतिपादन जैन-दर्शन की विशेषता है। पद्रव्यो की स्थिति से स्पष्ट है कि यह लोक अनादि अनन्त है, इसका कर्ता-धर्ता या निर्माता कोई व्यक्ति-विशेष या शक्ति-विशेष नही है । देश - पन्द्रह - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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