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________________ कहते है। स्वभाव की प्राप्ति में कारण कुछ नही है, एक कर्मो का अभाव ही कारण है, विधिरूप कारण कुछ नही है किन्तु स्वभाव की दृष्टि न हो सकने में कारण था कर्मो का उदय इस कारण कर्मो के अभाव को स्वभाव की प्राप्ति का कारण कहा है। स्वभाव की प्राप्ति होने के बाद अनन्तकाल तक स्वभाव बना रहता है, विकसित रहता है, प्राप्त रहता है। वहाँ कौन सा कारण है, न कोई विधिरूप और न कोई निषेधरूप। वहाँ तो धर्म आदि द्रव्य जैसे स्वभाव से अपने गुणो में परिणते रहते है। ऐसे ही ये सिद्ध संत भगवंत अपने ही गुणों में स्वभावतः अपने सत्व के कारण शुद्वरूप से परिणमते रहते है पर प्रथम बार की प्राप्ति कर्मो के अभाव को निर्मित पाकर हुई है। जिस समय तपश्चरण आदि योग्य स्थितियों के धारणा से ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मो का क्षय हो जाता है और रागद्वेषादिक भाव कर्मो का क्षय हो जाता है तब यह आत्मा सम्यग्ज्ञानस्वरूप इस चिदानन्द ज्ञानघन निश्चल टंकोत्कीर्ण ज्ञायकस्वभाव को प्राप्त कर लेता है। स्वभाव की सहजसिद्वता का एक दृष्टान्त - स्वभाव कही से लाकर नही पाना है वह तो टंकोत्कीर्णवत् निश्चल है। जैसे पाषाण की प्रतिमा पहिले एक मोटा पाषाण ही था। किसी धर्मात्मा को कारीगर से उस पाषाण में से प्रतिमा निकलवानी है। कारीगर बड़ी गौर से उस पाषाण को देखकर ज्ञानबल से उस पाषाण में प्रतिबिम्ब का दर्शन कर लिया है, उसने आँखो से नही उस प्रतिमा के दर्शन कर लिया, किन्तु ज्ञान से। अब उस प्रतिमा को अनुरागवश प्रकट करने के लिए कारीगर अलग करता है, जिन पत्थरो के टुकडो के कारण वह प्रतिमा किसी को नजर नही आ रही है उन टुकड़ो को यह कारीगर अलग करता हे, कारीगर को सब विदित है। आवरकों के अभाव में अन्तःस्वरूप के विकास का दृष्टान्तमर्म - यह कारीगर उन खण्डो को पहिले साधारण सावधानी के साथ अलग करता है। सावधानी तो उसके अन्दर में बहुत बड़ी है, किन्तु वहाँ इतनी आवश्यक नही समझी सो बडी हथौडा से उन खण्ड को जुदा करता है। मोटे-मोटे खण्ड जुदे होने पर अब उसकी अपेक्षा विशेष सावधानी बर्तता है, उससे कुछ पतली छेनी और कुछ हल्की हथौड़ी लेकर कुछ सावधानी के साथ उन पाषाण खण्डों को निकालता है। तीसरी बार में अत्यन्त अधिक सावधानी से और बड़े सूक्ष्म यत्न से बहुत महीन छेनी को लेकर और बहुत छोटे हथौड़े को लेकर अब उन सूक्ष्म खण्डो को भी अलग करता है, अलग हो जाते है ये सब आवरक पाषाण,खण्ड तो वे अवयव प्रकट हो जाते है जिन अवयवो में मूर्ति का दर्शन हुआ है। कारीगर ने मूर्ति बनाने के लिए नई चीज नहीं लाई, न वहाँ के किन्ही तत्वों को उसने जोड़ा है, केवल जो प्रतिमा निकली है उस अवयवो के आवरक या खण्डो को ही उसने अलग किया है। वह प्रतिमा तो स्वयंभू है, किसी अन्य चीज से बनी हई नही है। आवरको के अभाव में अन्तःस्वरूप का विकास - ऐसे ही जो सम्यग्दृष्टि इस चैतन्यपदार्थ में अतः स्वभाव के दर्शन कर लेते है उनके यह साहस होता है कि इस स्वभाव को वे प्रकट कर लें। इस स्वभाव के प्रकट होने का ही नाम परमात्मस्वरूप का प्रकट होना है। स्वभाव प्रकट करने के लिए किन्ही परतत्वों को नहीं जोड़ना है, किन्तु उस स्वभाव को
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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