SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना आध्यात्म योगी परम पूज्य गुरूवर्य 105 श्रीमद् सहजानन्द वर्णी जी ने अनेकों ग्रन्थो की रचना व टीकाएं की है। तथा उन्होनें महान आचार्यों की रचनाओं पर समय-समय पर अत्यन्त सरल भाषा में प्रवचन किए व लिखे है। उनकी सभी रचनाएँ अपूर्व व अनुपम है। उनकी प्रत्येक रचना से यह झलक मिलती है कि मुमुक्षुवृद आत्महित हेतु इन सूक्तियों को किस प्रकार आत्मसात करके उनाके प्रयोगात्मक विधि से अपने जीवन के क्षणों में प्रयोग करे। और अनन्त काल तक के लिए सुखी होवे। यह विशेषता सहजानन्द जी की कृतियो में ही है। वे प्रति समय अपने उपयोग को स्थिर रखते थे और निरन्तर लिखने में ही संलग्न रहते थे। यहाँ तक की जीवन के अन्तिम क्षण में भी कलम उनके हाथ में ही था। 62 वर्ष की अल्प आयु में उनका स्वर्गवास होना एक ऐसी क्षति है जो पूरी नही हो सकती। इष्टोपदेश ग्रन्थ सर्वार्थ सिद्धि के रचियता परमपूज्य 108 आर्चाय पूज्यपाद स्वामी की 51 श्लोको की एक छोटी सी अत्यन्त उपयोगी आध्यात्मिक कृति है। इसका अंग्रेजी अनुवाद स्वर्गीय बैरिस्टर चम्पतराय जी ने किया है। जो विदेशो में काफी प्रचलित है। इन्ही पर वर्णी जी के प्रवचनों का यह द्वितीय संस्करण आपके सामने है आशा है आप इनका उपयोग करके धर्म लाभ उठावेगें। मल में शिष्य ने आचार्य प्रभु से प्रश्न किया कि प्रभु यदि अनुकूल चतुष्टय से ही साध्य की सिद्वि हो जायेगी तो व्रत समीति आदि का पालन निरर्थक हो जायेगा। आचार्य कहते है हे वत्स! व्रत समीति अदि नवीन शुभ कर्मो के बंध का कारण होने से तथा पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मो का एक देश क्षय होने से पुण्य की उत्पत्ति होती है जो स्वर्गादि का कारण होता है अतः व्रतो के द्वारा देवपद प्राप्त करना अच्छा है अव्रतों के द्वारा नारक प्राप्त करने में तो कोई बुद्धिमानी है नही। शिष्य के पुनः पुनः प्रश्न करने पर आचार्य समझाते है कि यदि आत्मा चरम शरीरी नहीं हो तो उसे स्वर्ग व चकवादि के पद आत्मध्यान से उपर्जित पुण्य की सहायता से प्राप्त होते है जो परम्परा से मोक्ष ले जाने वाले है। अर्थात् चरम शरीरी न होने पर मोक्ष पुरूषार्थ भी स्वर्गादि सुखो का ही कारण है। आचार्य कहते है कि शरीर से भिड़कर शुचि पदार्थ भी अशुचि हो जाते है फिर अशुचि से अशुचि के सेवन में क्या चतुराई है। इस प्रकार पूज्य वर्णी जी ने इसका खुलासा करके सरल शब्दों में प्रशस्त प्रवृत्ति का बोध कराया है। अनेक विद्वानों व प्रवचनकारो ने इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है हम उन सबके आभारी है। आप भी शास्त्रमाला के स्थायी ग्राहक 1000) में बन सकते है जो ग्रन्थ अब तक छपे है। या जो आइन्दा छपेंगे वे सब उनको निःशुल्क भेजे जाते है। भवदीय 16-10-94 डा0 नानकचन्द जैन सान्तौल हाऊस, मौ0 ठटेरवाड़ा मेरठ शहर
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy