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________________ XXX ऊरु के बीचका हिस्सा) का प्रमार्जन करके शिष्य गोदोहिकाआसन पर अर्थात् खडे पैरों पर गुरू के सामने बैठता है, एवं रजोहरण गुरू-चरणों के सामने रखकर उसमें गुरू-चरण की स्थापना करता है । फिर उस पर मुहपत्ति रखकर एक-एक अक्षर स्पष्ट रूप से अलग अलग बोलता है । जो इस प्रकार है । अ - रजोहरणको स्पर्श करते हुए बोलते है । हो - ललाटको स्पर्श करते हुए बोलते है । का - रजोहरण को स्पर्श करते हुए बोलते है । यं - ललाटको स्पर्श करते हुए बोलते है । का - रजोहरणको स्पर्श करते हुए बोलते है । य - ललाटको स्पर्श करते हुए बोलते है । चित्र नं - ३, ४, ५ पछी गुरुचरणनोंकी स्थापनाकीजगह पर दोनो हाथ सीधे रखकर वंदन करते हुए बोलते है - 'संफास' । यहाँ पहला नमस्कार होता है । चित्र नं - ६ फिर दोनो हाथ जोडकर ललाट उपर रखते हुए बोलते है की 'खमणिज्जो भे ! किलामो' यहाँ तकके पदों का समावेश अनुज्ञापन-स्थानमें होता है । ३. अव्याबाध - पृच्छा-स्थान : अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कंतो ? - अल्पग्लानिवाले ऐसा आपका दिन सुखपूर्वक बीता है ? अंतः करण से प्रसन्नतापूर्वक होते कार्यों से उब नहीं होती, और ग्लानिभी कम होती है। यहाँ गुरुको अल्प ग्लानिवाला बताने का आशय यह है कि वे रोजाना कार्यो को प्रसन्नतापूर्वक अनुसरण करनेवाले है। ऐसा बताना है। 'बहुशुभेण' शब्द अव्याबाध स्थिति अर्थात् रोह आदि पीडा रहित स्थिति दर्शाने
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
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