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________________ xiv जिसमें यतना करने की खास आवश्यकता है, उसका विचार शरीरके पडिलेहण के प्रसंग पर करना है । जो इस तरह है : 'हास्य, रति, अरति, परिहरूं' 'भय, शोक, जुगुप्सा परिहरं'' भय, शोक, जुगुप्सा परिहरु' अर्थात् जो हास्यादि षट्क (छह ) ( चारित्रमोहनीय) कषाय से उत्पन्न होता है, उसका त्याग करने से मेरा चारित्र सर्वांशे (संपूर्णतः) निर्मल हो जाए । 'कृष्ण लेश्या, नील लेश्या एवं कापोत लेश्या परिहरं' क्योंकि उन तीनों लेश्याओं में अशुभ अध्यवसायों की प्रधानता है एवं उसका फल आध्यात्मिक पतन है, इसलिए परिहरता हुँ ।' 'रसगारव, ऋद्धिगारव एवं सातागारव परिहरं' क्योंकि उसका फलभी साधनामें विपक्ष एवं आध्यात्मिक पतन है, इसलिए परिहरण करता हुँ । उसके साथ 'मायाशल्य, नियाणशल्य और मिथ्यात्वशल्य परिहरं' क्योंकि वे धर्मकरणी के अमूल्य फलका नाश करनेवाला है । इन सबका उपसंहार करते हुए मैं ऐसी भावना रखता हुँ कि 'क्रोध और मान तथा माया और लोभ परिहरं' जो अनुक्रमसे राग एवं द्वेषके स्वरुप है । सामायिककी साधनाको सफल बनानेवाली जो मैत्री भावना है उसका मैं, हो सके उतना पालन करके 'पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, तथा सकाय' इन छह कायों के जीवोकी यतना और जयणा करूंगा। अगर ये सब करूं तो यह मुहपत्ति समान साधुत्वका जो प्रतीक मैंने हाथमें लिया है, वह सफल हो जायेगा ।
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
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