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________________ श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित पत्थाण पत्थियं, संथ वारिहं । हत्थि हत्थ बाहुं धंत कणग रुअग निरुवहय पिंजरं पवर लक्खणो वचिय सोम चारु रूवं, सुइ सुह मणाभिराम परम रमणिज्ज वर देवदुंदुहि निनाय महुरयर सुहगिरं । (९) वेढओ अजिअं जिआरिगणं, जिअ सव्व भयं भवोहरिउं । पणमामि अहं पयओ, पावं पसमेउ मे भयवं । (१०) रासालुध्धओ २४९ जो दीक्षासे पूर्व श्रावस्ती (अयोध्या) के राजा थे, जिनका संस्थान श्रेष्ठ हाथीके कुम्भस्थल जैसा प्रशस्त और विस्तीर्ण था, जो निश्चल और अविषम वक्षःस्थलवाले थे (जिनके वक्षःस्थल पर निश्चल श्रीवत्स था), जिनकी चाल मद खरते हुए और लीलासे चलते हुए श्रेष्ठ गन्धहस्तिके जैसी मनोहर थी, जो सर्व प्रकार से प्रशंसाके योग्य थे, जिनकी भुजाएँ हाथी की सूँढके समान दीर्घ और गठीली थीं, जिनके शरीरका वर्ण तपाये हुए सुवर्णकी कान्ति जैसा स्वच्छ पीला था, जो श्रेष्ठ लक्षणोंसे युक्त, शान्त और मनोहर रूपवाले थे, जिनकी वाणी कानोंको प्रिय, सुखकारक, मनको आनन्द देनेवाली, अतिरमणीय और श्रेष्ठ ऐसे देवदुन्दुभिके नादसे भी अतिमधुर और मंगलमय थी, जो अन्तरके शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेवाले थे, जो सर्व भयोंको जीतनेवाले थे, जो भव- परम्पराके प्रबल शत्रु थे, ऐसे श्री अजितनाथ भगवान्‌को मैं मन, वचन और कायाके प्रणिधानपूर्वक नमस्कार करता हूँ और निवेदन करता हूँ कि 'हे भगवन् ! आप मेरे अशुभ कर्मोंको प्रशमन करो । (९–१०)
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
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