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________________ आणत-पाणत-आरण-अच्चुतेसु चउसु वि भवधारणिज्जा जह. अंगु. असं., उक्को. तिणि रयणीओ; उत्तरवेउव्विया जहा सोहम्मे । (३) सौधर्मकल्प के देवों की शरीरावगाहना विषयक प्रश्न की तरह शेष अच्युतकल्प तक के देवों की अवगाहना सम्बन्धी प्रश्न पूर्ववत् जानना चाहिए। उत्तर इस प्रकार हैंसनत्कुमारकल्प में भवधारणीय जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट छह रत्नि प्रमाण है । उत्तरवैक्रिय अवगाहना सौधर्मकल्प के बराबर है। सनत्कुमारकल्प जितनी अवगाहना माहेन्द्रकल्प में जानना । ब्रह्मलोक और लांतक - इन दो कल्पों में भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अवगाहना पाँच रत्नि प्रमाण है । उत्तरवैक्रिय अवगाहना का प्रमाण सौधर्मकल्पवत् है । महाशुक्र और सहस्रारकल्पों में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट चार रनि प्रमाण है । उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना सौधर्मकल्प के समान है। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत - इन चार कल्पों में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल के असख्यातवे भाग और उत्कृष्ट तीन रत्नि की है। इनकी उत्तरवैक्रिय अवगाहना सौधर्मकल्प के ही समान है । विवेचन - देवो के चार मुख्य निकाय है - (१) भवनपति, (२) वाणव्यतर, (३) ज्योतिष्क, और (४) वैमानिक। इन्ही के भेदोपभेद करने पर देवो के १९८ भेद होते है । (देखे तत्त्वार्थसूत्र ४ / १) फिर भी रूढि से 'कल्प' शब्द का व्यवहार वैमानिक देवों के लिए ही किया जाता है। सौधर्मकल्प से अच्युतकल्प पर्यन्त के देव कल्पोपपन्न है और इनसे ऊपर नव-ग्रैवेयक आदि सर्वार्थसिद्ध तक के विमानो मे इन्द्रादि की कल्पना नही होने से वहाँ के देव कल्पातीत कहलाते है । इन सभी कल्पवासी देवो की उत्तरवैक्रिय जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना समान अर्थात् जघन्य अगुल के सख्यातवे भाग प्रमाण और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है। लेकिन भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना में अन्तर है । इसका कारण यह है कि ऊपर-ऊपर के प्रत्येक कल्प मे वैमानिक देवो की आयुस्थिति, प्रभाव, सुख, घुति - काति, लेश्याओ की विशुद्धि, विषयों को ग्रहण करने की ऐन्द्रियक शक्ति एव अवधिज्ञान की विशदता क्रमशः अधिक होती है । किन्तु एक देश से दूसरे देश मे गमन करने रूप गति, शरीरावगाहना, परिग्रह - ममत्वभाव और अभिमान भावना उत्तरोत्तर ऊपर-ऊपर के देवो अल्प- अल्पतर होती जाती है। इसी कारण सौधर्मकल्प मे देवो की शरीरावगाहना सात रनि प्रमाण है तो वह बारहवे अच्युतकल्प में जाकर तीन रनि प्रमाण रह जाती है। अवगाहना-प्रकरण Jain Education International (133) For Private Personal Use Only The Discussion on Avagahana www.jainelibrary.org
SR No.007656
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2001
Total Pages627
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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