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________________ रस का क्रम रखा है तथा व्रीडनक रस (लज्जा रस) के रूप मे एक नया ही रस बताया है । अन्य किसी काव्यशास्त्रीय वर्णन मे 'व्रीडनक रस' का कथन नही है । चूर्णिकार तथा टीकाकार हरिभद्र ने इस विषय मे कोई स्पष्टीकरण नही किया है, परन्तु आचार्य मलधारी हेमचन्द्र का स्पष्टीकरण है कि भयोत्पादक सामग्री देखने से भयानक रस की उत्पत्ति होती है। यहाॅ पर 'भयानक' रस को 'रौद्र रस' मे ही विवक्षित कर दिया है और 'व्रीडनक रस' को अलग प्रस्तुत किया है। सामुद्रिक शास्त्र प्रमाण, मान, उन्मान आदि के भेदो मे सामुद्रिक लक्षणो वाले उत्तम, मध्यम, अधम पुरुष बताये है। (सूत्र ३३४) जैसे जिसके शरीर की ऊँचाई १०८ अगुल प्रमाण मात्र हो, उस पर शख, वृषभ आदि के लक्षण - चिन्ह हो । मष, तिल आदि व्यजन हों, जिसमे क्षमा आदि गुण हों, वह उत्तम पुरुष है । १०४ अगुल की ऊँचाई वाला मध्यम पुरुष और ९६ अगुल की ऊँचाई वाला अधम पुरुष । उस समय के सामुद्रिक शास्त्र की धारणा का पता इस वर्णन से चलता है। इसी प्रकार सूत्र ६५३ - ६५४ मे आकाश दर्शन, नक्षत्र आदि के आधार पर सुवृष्टि, कुदृष्टि, सुकाल, दुर्भिक्ष आदि का अनुमान होना बताया है। मान्यताएँ तथा व्यवसाय सूत्र २१ मे उस युग मे प्रचलित वेश-भूषा तथा क्रियाकलाप के आधार पर विविध प्रकार की धार्मिक मान्यताओ का उल्लेख है, जैसे- चरक, चीरक, चर्मखंडिक गौतम, गौव्रतिक आदि । व्यवसाय या कर्म के अनुसार जिन जातियो का नामकरण होता था, उनका उल्लेख यह सूचित करता है कि प्राचीन भारत में 'जाति' जन्मना नही, कर्मणा मानी जाती थी । व्यावसायिक जातियो के नाम-दौसिक - कपडा बनाने वाले, सौत्रिक - सूत बुनने वाले, तांत्रिक-तत्री वादक, मुंजकार - मूँज की रस्सी बनाने वाले, वर्धकार - चमडे की विविध वस्तुऍ बनाने वाले, पुस्तकार - कागज बनाने वाले या पुस्तकें लिखने वाले, दंतकार - हाथी दॉत आदि का काम करने वाले आदि । (सूत्र ३०४) विविध कला निपुण कलाकारो के नामों से पता चलता है, आज की तरह प्राचीन समय मे भी शरीर के अवयवो को मोडने, घुमाने व विविध प्रकार से जनता का मनोरजन करने वाले अनेक कलाकार (जिम्नास्टिक) उस समय होते थे । जैसे- नर्तक - नृत्य करने वाला, जल्ल- रस्सी पर नाचने वाला, मल्ल-कुश्ती लडने वाला, प्लवक - गड्ढे व नदी - तालाब मे गहरी छलॉग लगाने वाला, लंख -मोटे बाँस पर चढकर विविध करतब दिखाने वाला आदि । (सूत्र ३०४) धान्य, रस, धातु आदि नापने के तोल, माप, बॉट, गज आदि उस युग में अनेक प्रकार के साधन विकसित हो चुके थे। सूत्र ३२० से ३४४ तक से मान, उन्मान, क्षेत्र, प्रमाण आदि का वर्णन उस युग की प्रचलित और विकसित व्यापार विधियो का अच्छा दिग्दर्शन कराती है। इस प्रकार अनुयोगद्वारसूत्र मे जहाँ दार्शनिक व सैद्धान्तिक चर्चा है वहाँ सास्कृतिक विषयो की भी विपुल सामग्री है जो उस समय की लोक कला, व्यापार कला व साहित्य रचना के विकास की सूचना देती है। Jain Education International (11) For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007656
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2001
Total Pages627
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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