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________________ Guruwal मुहाजीवी-मुधाजीवी-जो अपनी पूर्व जाति, कुल, व्यवसाय, प्रसिद्धि आदि के सहारे नहीं जीता हो तथा प्रतिफल देने की भावना रखे बिना जैसा आहार मिले उससे जीवन यापन करने वाला अनासक्तभाव से जीने वाला निस्पृह त्यागी। मुधाजीवी के विषय में आचार्य महाप्रज्ञजी ने एक प्राचीन दृष्टान्त उद्धृत किया है। जिससे प्रस्तुत विषय अधिक स्पष्ट होता है। दृष्टान्त इस प्रकार है___ एक राजा था। एक दिन उसके मन में विचार आया कि सभी लोग अपने-अपने धर्म की प्रशंसा करते हैं और उसको मोक्ष का साधन बताते हैं अतः कौन-सा धर्म अच्छा है उसकी परीक्षा करनी चाहिए। धर्म की पहचान उनके गुरु से ही होगी। वही सच्चा गुरु है जो निःस्वार्थ भिक्षाजीवी है। उसी का धर्म सर्वश्रेष्ठ होगा।' ऐसा सोच उसने अपने नौकरों से घोषणा कराई कि राजा मोदकों का दान देना चाहता है। राजा की मोदक-दान की बात सुन अनेक कार्पटिक आदि वहाँ दान लेने आये। राजा ने दान के इच्छुक उन एकत्र कार्पटिक आदि से पूछा-"आप लोग अपना जीवन-निर्वाह किस तरह करते हैं ?" उपस्थित भिक्षुओं में से एक ने कहा-“मैं मुख से निर्वाह करता हूँ।" दूसरे ने कहा-"मैं पैरों से निर्वाह करता हूँ।" तीसरे ने कहा-“मैं हाथों से निर्वाह करता हूँ।" चौथे ने कहा-“मैं लोकानुग्रह से निर्वाह करता हूँ।'' पाँचवें ने कहा-“मेरा क्या निर्वाह ? मैं मुधाजीवी हूँ।" राजा ने कहा-“आप लोगों के उत्तर को मैं अच्छी तरह नहीं समझ सका अतः इसका स्पष्टीकरण करें।" तब पहले भिक्षु ने कहा-“मैं कथक हूँ, कथा कहकर अपना निर्वाह करता हूँ, अतः मैं मुख से निर्वाह करता हूँ।" दूसरे ने कहा-“मैं सन्देश पहुँचाता हूँ, लेखवाहक हूँ, अतः पैरों से निर्वाह करता हूँ।" तीसरे ने कहा-“मैं लेखक हूँ, अतः हाथ से निर्वाह करता हूँ।” चौथे ने कहा- मैं लोगों का अनुग्रह प्राप्त कर निर्वाह करता हूँ।" पाँचवें ने कहा-“मैं संसार से विरक्त निर्ग्रन्थ हूँ। संयम-निर्वाह के हेतु निःस्वार्थ बुद्धि से लेता हूँ। मैं आहार आदि के लिए किसी की अधीनता स्वीकार नहीं करता, अतः मैं मुधाजीवी हूँ।" इस पर राजा ने कहा“वास्तव में आप ही सच्चे साधु हैं।" राजा उस साधु से प्रतिबोध पाकर प्रव्रजित हुआ। ___ दोसवज्जियं-दोषवर्जित-भोजन करने के दोष दो प्रकार के हैं-(१) गवेषणा दोष, तथा (२) भोगैषणा दोष। गवेषणा के आधाकर्मी आदि दोषों की चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। भोगैषणा दोष निम्न पाँच प्रकार के कहे हैं (१) अंगार-आहार ग्रहण कर उसमें मूर्छित, गृद्ध होकर आहार करना। इससे संयम कोयला जैसा मलिन हो जाता है। पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा (प्रथम उद्देशक) Fifth Chapter : Pindaishana (Ist Section) १६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007649
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Purushottamsingh Sardar, Harvindarsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1997
Total Pages498
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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