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________________ कभी ऐसा भी होता है कि माता-पिता अपने दीक्षार्थी पुत्र को एक दिन के लिए राजा बना देते हैं, जैसा कि अन्तकशास्त्र के गजसुकुमाल और अतिमुक्तकुमार (ऐवन्ताकुमार) के अध्ययन में हुआ है। तब वह दीक्षार्थी राजा बनकर दीक्षा की अभिलाषा प्रगट करता है। तदनन्तर उसका दीक्षा महोत्सव होता है। दीक्षार्थी को ऊँचे पाट पर विठाया जाता है, गंध द्रव्यों से उसके शरीर का उबटन किया जाता है, शतपाक सहस्रपाक तेल की मालिश की जाती है। अनेक औषधियों से मिश्रित जल के घड़ों से स्नान कराया जाता है। उसे उत्तम वस्त्रालंकारों से सुसज्जित किया जाता है। १,000 पुरुष उठा सकें, ऐसी शिविका में उसे बिठाकर नगर के मध्यवर्ती भागों में होकर दीक्षा-स्थल पर ले जाया जाता है। वहाँ दीक्षार्थी गुरुदेव को नमन करके ईशानकोण में जाता है, बहुमूल्य वस्त्राभूषण उतारकर साधु वेश धारण करता है और गुरुदेव के समक्ष आकर उन्हें नमन-वन्दन करके दीक्षा की प्रार्थना करता है। यहाँ एक प्रश्न उठता है कि धर्म तो आडम्बरहीन होता है, फिर दीक्षा विधि में अभ्यंगन, उत्तम वस्त्रालंकार आदि धारण करने की आवश्यकता ही क्या है ? __ इसका उत्तर यह है कि दीक्षार्थी तो विरागी ही होता है, लेकिन इस आडम्बरपूर्ण लम्बे विधि-विधान से जनता-साधारणजन भी धर्म से प्रभावित होता है। उन्हें धर्म-पालन और दीक्षा ग्रहण करने की प्रेरणा मिलती है। साधक अपने सिर के बालों का लोंच करता है, जिन्हें माता अपने आँचल में ग्रहण करती है। माता-पिता गुरुदेव से प्रार्थना करते हैं-हे भगवन् ! हम आपको शिष्य-भिक्षा दे रहे हैं। यह हमारा अति प्रिय पुत्र है। इसका कल्याण करिए। तव गुरुदेव रात्रि-भोजन त्याग के साथ त्रिकरण-त्रियोग (करूँ नहीं, कराऊँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं, मन से, वचन से, काया से--इस प्रकार नव कोटि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह-इन पाँच महाव्रतों का यावज्जीवन प्रत्याख्यान करके उसे दीक्षित कर लेते हैं। इस प्रकार दीक्षा-विधि पूर्ण होती है। महत्त्व ___दीक्षा-विधि की इस लम्बी प्रक्रिया का प्रमुख महत्त्व यह है कि दीक्षार्थी अनेक लोगों की भीड़ के सामने दीक्षा ग्रहण करता है तो वह अपने व्रत-नियम. महाव्रत-पालन, मूल-गुण, उत्तर-गुणों में अधिक सजग और सावधान रहता है, शिथिलाचार और स्खलनाओं से यथासंभव बचता रहता है। दूसग महत्त्व यह है कि अन्य उपस्थित जन भी जैन श्रमण की दीक्षा-विधि से परिचित हो जाते हैं। साथ ही वे जैनधर्म और दीक्षार्थी के जय उद्घोषों से साधक का मनोबल बढ़ाते हैं। दीक्षार्थी भी दीक्षा के गौरव से मंडित हो जाता है। नवदीक्षित साधु के मन-मस्तिष्क में यह भावोर्मियाँ उठने लगती हैं। जैनधर्म और जैन श्रमण-दीक्षा कितनी महान् है कि सर्वसाधारण जन भी इसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं। मैं अपनी संयम-साधना से इसे और भी चमकाऊँ, जिससे धर्म का प्रचार-प्रसार बढ़े, लोगों की श्रद्धा और भी दृढ़ हो। जैन श्रामणी दीक्षा के वर्णन से विविध प्रकार के लाभ हैं। ___ अन्तकृद्दशा महिमा ४७७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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