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________________ आठों पुत्र वधुओं को इस प्रकार प्रीतिदान दिया - आठ करोड़ चाँदी के सिक्के. आठ करोड़ सोने के सिक्के. आठ श्रेष्ठ मुकुट, आठ श्रेष्ठ कुण्डल युगल, आठ उत्तम हार. आठ बाजूबन्दों की जोड़ी आदि अनेक प्रकार के आभूषण तथा इसी प्रकार उत्तम वस्त्र आदि अनेक प्रकार की वस्तुएँ दीं । इसी प्रकार वधुओं को अपने पिताओं से भी विपुल (दात ) दहेज मिला । उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि दहेज का प्रचलन अति प्राचीनकाल से है । राजा. धनी और निर्धन सभी अपनी हैसियत के अनुसार दहेज देते थे, साथ ही पितृ पक्ष भी नववधुओं को प्रीतिदान देता था । किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि दहेज अनिवार्य नहीं है। इसका नाम 'प्रीतिदान' है, अर्थात् कन्या के माता-पिता प्रेम और वत्सलतापूर्वक अपनी पुत्री को बिना किसी दबाव के अपनी सामाजिक मान-मर्यादा के अनुसार जो धन आदि सामग्री देते थे उसको ही प्रीतिदान कहा गया है। उस युग में नारी का स्थान सम्मानित था । विवाह एक महोत्सव था और हर्षोल्लासपूर्वक मनाया जाता था। वैदिकधर्म में विवाह को संस्कार कहा गया है। संस्कार का अर्थ है जीवन को सुसंस्कृत करना. सुधारना. नया और इच्छित एवं उन्नतिशील रूप देना । इसी कारण विवाह के समय इतना आयोजन किया जाता है। जैनधर्म में स्त्री और पुरुष समान माने गये हैं। गृहस्थ जीवन में भी इनके अधिकार समान माने गये हैं । इसीलिए दहेज के साथ प्रीतिदान की प्रथा भी प्रचलित थी । यों देखा जाय तो यह दोनों प्रथाएँ आज भी प्रचलित हैं। कन्या के माता-पिता दहेज देते हैं तो वर पक्ष भी वधू को आभूषण, वस्त्र आदि देता है। दूसरी बात भारतीय संस्कृति में विवाह सामाजिक, पारिवारिक संबंध तो है ही ; धार्मिक और नैतिक संबंध भी है तथा जीवनभर के लिए होता है। जैन आगमों में पत्नी को धम्मसहाया' कहकर विवाह का महत्त्व दिखाया है और उसे धर्म-पत्नी कहकर विवाह को धर्म और आध्यात्मिकता से संलग्न किया गया है। ३. दीक्षा- वर्णन दीक्षा, विशेष रूप से जैन श्रामणी दीक्षा व्यक्ति का नया जीवन है। व्यक्ति माना के गर्भ से निकलकर संसारी जीवन में प्रवेश करता है और दीक्षा ग्रहण करके संसार का त्याग करता हुआ धार्मिक जीवन में प्रवेश करता है। संसार की ओर से पीठ मोड़ लेता है, संसार और सांसारिक जीवन तथा काम-भोगों से विरक्त होता है । स्व-पर-कल्याण. कर्म-निर्जग और मोक्ष प्राप्ति ही उसका एक मात्र लक्ष्य हो जाता है। किसी तीर्थंकर, केवली, धर्माचार्य अथवा देव की प्रेरणा से जब व्यक्ति को संसार खारा लगने लगता है तब वह अपने माता-पिता आदि से दीक्षा की अनुमति माँगता है। मोहवश माता-पिता उसे रोकने का प्रयास करते हैं, किन्तु दीक्षार्थी के दृढ़ निश्चय के समक्ष उन्हें झुकना पड़ता है. वे अनुमति देते हैं और उसका अभिनिष्क्रमण उत्सव मनाते हैं। अन्तकृद्दशासूत्र में गौतमकुमार की दीक्षा ( अभिनिष्क्रमण ) महोत्सव का वर्णन कुछ विस्तार से आया है । ४७६ Jain Education International For Private Personal Use Only अन्तकृदशा महिमा www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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