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________________ प्रकाशकीय : प्रथम संस्करण आगम रत्नाकर आचार्यसम्राट् श्री आत्माराम जी म. ने जैन आगमों के प्रचार प्रसार एवं अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से जो अविस्मरणीय कार्य सम्पादन किया, वह जैन आगम साहित्य के इतिहास में सदा अमर रहेगा । उनकी प्रेरणा से तथा उन्हीं के कृत कार्य को आगे बढ़ाने में उनकी सुविज्ञ शिष्य-परम्पग सदा अग्रणी रही है । उनके आगम रहस्यवेत्ता विद्वान् शिष्यों ने जिनवाणी के अध्यात्म ज्ञान को जनव्यापी बनाने में अपने जीवन का बहुत बड़ा योगदान किया है । इसी पावन परम्परा में आचार्यसम्राट के विद्वान शिष्य पंडितरत्न श्री हेमचन्द्र जी महाराज के सुशिष्य उत्तर भारतीय प्रवर्तक गुरुदेव भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज का नाम भी सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा । प्रवर्तक गुरुदेव श्री भण्डारी जी म. की प्रेरणा एवं आपश्री के विद्वान् शिष्य उपप्रवर्तक श्री अमर मुनि जी म. के सम्पादन में सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण, भगवतीसूत्र (चार भाग) आदि विशाल आगमों का हिन्दी व्याख्या के साथ जो सुन्दर जनोपयोगी प्रकाशन करवाया है वह सर्वत्र समादृत हुआ है । आगम पाटकों को उससे बहुत लाभ मिला है । आगम प्रकाशन की इसी महान् शृंखला में प्रवर्तक गुरुदेव श्री भण्डारी जी म. की भावना के अनुरूप उपप्रवर्तक श्री अमर मुनि जी म. ने जैन आगमों का चित्रमय प्रकाशन करने की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा सर्वथा अभिनव योजना का प्रारंभ किया है । चित्र-दर्शन से विषय-वस्तु का बोध शीघ्र हो जाता है । इसलिए ज्ञान-वृद्धि में चित्रों का एक अलग महत्त्व है । आगमों का सचित्र प्रकाशन जहाँ एक बहुत विशाल और व्यय-साध्य कार्य है, वहाँ इसका ऐतिहासिक महत्त्व भी है । आने वाले युगों में तथा जहाँ पर जैन : मण-श्रमणियाँ नहीं पहुँचते हैं, वहाँ पर इन चित्रमय आगमों से जनता जैनधर्म, संस्कृति, परम्पग और तत्त, प्वरूप को बहुत ही आसानी से समझ सकेगी-यह निस्संदेह कहा जा सकता है । इसी दूरदृष्टि को और भविष्य के सुन्दर परिणाम को ध्यान में रखकर गुरुदेवश्री की कृपा से हमने जैन आगम शास्त्रों का चित्रमय प्रकाशन प्रारंभ किया है । कुछ समय पूर्व हमने भगवान महावीर की अन्तिम देशना श्री उत्तराध्ययनसूत्र का चित्रमय भव्य प्रकाशन किया। इस प्रकाशन को सभी ने बहुत पसन्द किया, मुक्त कण्ठ से प्रशंसा भी की है । अब अपेक्षा है कि इस प्रकार का श्रेष्ठ और मूल्यवान साहित्य प्रत्येक पुस्तकालय, स्थानक, उपाश्रय और मन्दिर में पहुँचे, लोग इसे अपनी अलमारी में सजाकर भी रखें और समय-समय पर स्वाध्याय करके लाभान्वित भी हों । आज नहीं तो कल ऐसा समय आयेगा, जब शास्त्र-प्रेमी साधु-साध्वी तथा श्रावक इस प्रकार के भव्य मनोरम साहित्य को पढ़ने के लिए मँगाने की प्रेरणा देंगे और इसके व्यापक प्रचार में सहयोगी बनेंगे । हम इस वर्ष अष्टम अंग श्री अन्तकृद्दशासूत्र का चित्रमय प्रकाशन कर रहे हैं । सामान्य प्रकाशन से चित्रमय प्रकाशन लगभग दस गुना अधिक महँगा पड़ता है । इस कारण प्रकाशन में लागत बहुत अधिक आती है और उसका मूल्य भी अधिक रखना पड़ता है । किन्तु फिर भी हम लागत मूल्य पर ही इसे घर-घर पहुँचाने का प्रयास करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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