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________________ (८) औपपातिक--देवता फूलों की शय्या में, नारक कुम्भी में उत्पन्न होकर एक मुहूर्त के भीतर ही पूर्ण युवा बन जाते हैं, इसलिए वे औपपातिक (अकस्मात् उत्पन्न होने वाले) कहलाते हैं। (देखें चित्र) ___ इन आठ प्रकार के जीवों में प्रथम तीन ‘गर्भज' चौथे से सातवें भेद तक ‘सम्मूर्छिम', और देव-नारक औपपातिक हैं। ये सभी ‘सम्मूर्छनज, गर्भज, उपपातज-इन तीन भेदों में समाहित हो जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र (२/३२) में ये तीन भेद ही गिनाये हैं। ___ इन जीवों को संसार कहने का अभिप्राय यह है कि यह अष्टविध योनि-संग्रह ही जीवों के जन्म-मरण तथा गमनागमन का केन्द्र है। अतः इसे ही संसार समझना चाहिए। ___ 'परिनिर्वाण' शब्द मोक्ष का वाचक है। किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में ‘परिनिर्वाण' से सर्वविध सुख, अभय, दुःख और पीड़ा का अभाव आदि अर्थ ग्रहण किया गया है और बताया गया है कि प्रत्येक जीव सुख, शान्ति और अभय की आकांक्षा रखता है। अशान्ति, भय, वेदना उनको महान् भय व दुःखदायी है। अतः उनकी हिंसा न करे। प्राण, भूत, जीव, सत्त्व-ये चारों शब्द जीव के ही वाचक हैं। इनके अलग-अलग अर्थ भी किये गये हैं। जैसे-भगवतीसूत्र (२/१) में बताया है दस प्रकार के प्राणयुक्त होने से श्वासोच्छ्वास लेता है, अतः प्राण है। तीनों काल में सत्ता रूप में रहने के कारण-भूत है। आयुष्य कर्म के कारण जीता है-अतः जीव है। विविध पर्यायों का परिवर्तन होते हुए भी आत्म-द्रव्य की सत्ता में कोई अन्तर नहीं आता, अतः सत्व है। टीकाकार आचार्य शीलांक ने निम्न अर्थ भी किया है “प्राणाः द्वि-त्रि-चतुःप्रोक्ता भूतास्तु तरवः स्मृताः। जीवाः पंचेन्द्रियाः प्रोक्ताः शेषाः सत्त्वा उदीरिताः॥" प्राण-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव। भूत-वनस्पतिकायिक जीव। जीव-पाँच इन्द्रिय वाले जीव-तिर्यंच, मनुष्य, देव, नारक। सत्त्व-पृथ्वी, अप्, अग्नि और वायु काय के जीव। Elaboration According to Agams the worldly beings are divided into two broad classes-sthavar or immobile and tras or mobile. Those who are capable of activities like stirring and moving in order to save themselves from torment or to enjoy pleasure are mobile आचारांग सूत्र ( ६२ ) Illustrated Acharanga Sutra TEPOATORATORRORISPRISPRASPRISPRISORTERMEDIASPASPASPOKGPRAGPOKSPONG DKG2016COMSPDAGDASPBXGODAGPOR6°EX66°26°DIGRANGPRAGPekse Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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