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________________ BRDANANDGAYODAYODAYOUANOPANORAYOYAYVAYODAYADUATOPAYVAYODAYODAKOVANDANOTATODATODATODIODA GD) (३) हिंसा की प्रवृत्ति। (सूत्र २७१) (४) स्त्री-प्रसंग रूप अब्रह्मचर्य। (सूत्र २७१) (५) आधाकर्म आदि दोषयुक्त आहार। (सूत्र २७२) (६) पर-वस्त्र और पर-पात्र का सेवन। (सूत्र २७३) (७) आहार के लिए सम्मान और पराश्रय की प्रतीक्षा। (सूत्र २७४) (८) अतिमात्रा में आहार। (सूत्र २७४) (९) रस-लोलुपता। (सूत्र २७४) (१०) मनोज्ञ एवं सरस आहार लेने की प्रतिज्ञा। (सूत्र २७४) (११) देहाध्यास-आँखों में पड़ा रजकण निकालना, शरीर खुजलाना आदि। (सूत्र २७४) (१२) अयला एवं चंचलता से गमन। (सूत्र २७५) (१३) शीतकाल में शीत निवारण का प्रयत्न। (सूत्र २७६) इस वर्णन में भगवान की हिंसा निवृत्ति, कामविजय, आहार-संयम, उपकरण-संयम, रस-संयम, काय-क्लेश तप द्वारा इन्द्रिय-निग्रह, वाणी-संयम आदि की सूचना दी गई है। आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने 'अपडिण्णे' की व्याख्या करते हुए कहा है-भगवान ने कभी सरस आहार के विषय में प्रतिज्ञा नहीं की किन्तु नीरस आहार के विषय में प्रतिज्ञा अवश्य की थी, जैसे १३ बोलों के प्रसंग में उड़द के बाकले लेने का अभिग्रह। अतः यहाँ अपडिण्णे से सरस आहार के विषय में अप्रतिज्ञ रहने का भाव छिपा है। (आचारांग, पृ. ६७१) ___ यहाँ संकेत रूप में 'स्त्री' शब्द को अब्रह्मचर्य का प्रतीक माना है। जस्सित्थीओ परिण्णाता-जो स्त्रियों को भलीभाँति समझकर त्याग देता है, वह कर्मों के प्रवाह को रोक देता है। परवस्त्र और परपात्र का त्याग-चूर्णि के अनुसार भगवान ने दीक्षा के समय जो एक देवदूष्य वस्त्र धारण किया था, वह १३ महीने तक सिर्फ कंधे पर टिका रहने दिया, शीतादि निवारणार्थ उसका उपयोग नहीं किया। उन्होंने १३ महीने बाद वस्त्र का व्युत्सर्ग कर दिया था, फिर उन्होंने पाडिहारिक रूप में कोई वस्त्र धारण नहीं किया। आचारांग चूर्णि के अनुसार-भगवान ने प्रवजित होने के बाद प्रथम पारणे में गृहस्थ के पात्र में भोजन किया था, तत्पश्चात् वे कर-पात्र हो गए थे। फिर उन्होंने किसी के पात्र में आहार नहीं किया। नालन्दा की तन्तुवायशाला में गोशालक ने उनके लिए आहार ला देने की अनुमति माँगी, तो 'गृहस्थ के पात्र में आहार लाएगा' इस सम्भावना के कारण भगवान ने गोशालक को मना कर दिया। उपधान-श्रुत : नवम अध्ययन ( ४७१ ) Upadhan-Shrut : Ninth Chapter * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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