SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 529
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * * ** * * kie ackie sokhe #cks xkis stisatisakikki ki *** ****he wrkia xcxxxxxwww SID HIDANDRUARDAOUNUAROUNDAKODAKOVAKOVATOPATOPAKODAKOVINOVAKOTAPAKODAKOPARDAOPANOPARODAIL 277. Bhagavan Mahavir, the great sage belonging to the highly noble Kashyap clan followed the aforementioned code of conduct without any expectations. -So I say. विवेचन-सूत्र २६६ से २७७ तक भगवान की अहिंसायुक्त विवेक चर्या का वर्णन है। भगवान महावीर के समय में कुछ विद्वान् दार्शनिक यह मानते थे कि स्त्री मरकर स्त्री योनि में ही जन्म लेती है, पुरुष मरकर पुरुष ही होता है। पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीव पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीव ही बनेंगे। त्रसकायिक त्रसयोनि में ही उत्पन्न होंगे किसी अन्य योनि में उत्पन्न नहीं होंगे। भगवतीसूत्र में गौतम स्वामी द्वारा यह पूछे जाने पर कि "अयं णं भंते ! जीवे पुढविकाइयत्ताए जाव तस्सकाइयत्ताए उववण्णपुव्वे ?" "हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो जाव उववण्णपुव्वे।” (भगवतीसूत्र १२/७, सूत्र १४०) "भगवन् ! यह जीव पृथ्वीकाय के रूप से लेकर त्रसकाय के रूप तक में पहले भी उत्पन्न हुआ?" उत्तर-“हाँ, गौतम ! अनेक बार ही नहीं, अनन्त बार सभी योनियों में जन्म ले चुका है।" सूत्र २७० में बताया है भगवान ने आदान स्रोत आदि को अच्छी प्रकार का जान लिया था। वृत्तिकार ने इसका विवेचन इस प्रकार किया है (१) आदान स्रोत-कर्मों का आगमन दो प्रकार की क्रियाओं से होता है-साम्परायिक क्रिया से और ईर्याप्रत्ययिक क्रिया से। साम्परायिक कषाययुक्त प्रमत्त योग से की जाने वाली क्रिया से कर्मबन्ध तीव्र होता है, जबकि कषायरहित अप्रमत्तभाव से की जाने वाली ईर्याप्रत्यय क्रिया से कर्मों का बन्धन बहुत अल्प मात्रा में होता है। परन्तु दोनों ही आदान स्रोत है। (२) अतिपात स्रोत-अतिपात शब्द हिंसा ही नहीं, परिग्रह, मैथुन, चोरी, असत्य आदि का भी सूचक है ये आस्रव कर्मों के स्रोत हैं। (३) त्रियोग स्रोत-मन, वचन, काया इन तीनों योगों की प्रवृत्ति शुभ-अशुभ कर्मों के लिए योग स्रोत है। भगवान महावीर ने अपने साधनाकाल में निम्नोक्त कर्मस्रोत अवरुद्ध कर दिये, जिनका वर्णन सूत्र २७१ से २७६ में है। जैसे (१) प्राणियों का आरम्भ। (सूत्र २७१) (२) उपधि-बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह। (सूत्र २७१) आचारांग सूत्र ( ४७० ) Illustrated Acharanga Sutra * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy